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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ४

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उस लंका में एक तरु तले आपने।
कितनी अंधियाली रातें दी हैं बिता॥
अकली नाना दानवियों के बीच में।
बहुश:-उत्पातों से हो हो शंकिता॥46॥

कितनी फैला बदन निगलना चाहतीं।
कितनी बन विकराल बनातीं चिन्तिता॥
ज्वालाएँ मुख से निकाल ऑंखें चढ़ा।
कितनी करती रहती थीं आतंकिता॥47॥

कितनी दाँतों को निकाल कटकटा कर।
लेलिहान-जिह्ना दिखला थीं कूदती।
कितनी कर बीभत्स-काण्ड थीं नाचती।
आप देख जिसको ऑंखें थीं मूँदती॥48॥

आस पास दानव-गण करते शोर थे।
कर दानवी-दुरन्त-क्रिया की पूर्तियाँ॥
रहे फेंकते लूक सैकड़ों सामने।
दिखा-दिखा कर बहु-भयंकरी-मूर्तियाँ॥49॥

इन उपद्रवों उत्पातों का सामना।
आपका सबलतम सतीत्व था कर रहा॥
हुई अन्त में सती-महत्ता विजयिनी।
लंकाधिप-वध-वृत्ता लोक-मुख ने कहा॥50॥

पुत्रि आपकी शक्ति महत्ता विज्ञता।
धृति उदारता सहृदयता दृढ़-चित्तता॥
मुझे ज्ञात है किन्तु प्राण-पति प्रेम की।
परम-प्रबलता तदीयता एकान्तता॥51॥

ऐसी है भवदीय कि मैं संदिग्ध हूँ।
क्यों वियोग-वासर व्यतीत हो सकेंगे॥
किन्तु कराती है प्रतीति धृति आपकी।
अंक कीर्ति के समय-पत्र पर अंकेंगे॥52॥

जो पतिप्राणा है पति-इच्छा पूर्ति तो।
क्या न प्राणपण से वह करती रहेगी॥
यदि वह है संतान-विषयिणी क्यों न तो।
प्रेम-जन्य-पीड़ा संयत बन सहेगी॥53॥

देख रहा हूँ मैं पति की चर्चा चले।
वारि दृगों में बार-बार आता रहा॥
किन्तु मान धृति का निदेश पीछे हटा।
आगे बढ़कर नहीं धार बनकर बहा॥54॥

है मुझको विश्वास गर्भ-कालिक नियम।
प्रति दिन प्रतिपालित होंगे संयमित रह॥
होगा जो सर्वस्व अलौकिक-खानि का।
रघुकुल-पुंगव लाभ करेंगे रत्न वह॥55॥

इतनी बातें कह मुनि पुंगव ने बुला।
तपस्विनी आश्रम-अधीश्वरी से कहा॥
आश्रम में श्रीमती जनक-नन्दिनी को।
आप लिवा ले जायँ कर समादर-महा॥56॥

जो कुटीर या भवन अधिक उपयुक्त हो।
जिसको स्वयं महारानी स्वीकृत करें॥
उन्हें उसी में कर सुविधा ठहराइए।
जिसके दृश्य प्रफुल्ल-भाव उर में भरें॥57॥

यह सुन लक्ष्मण से विदेहजा ने कहा।
तुमने मुनिवर की दयालुता देख ली॥
अत: चले जाओ अब तुम भी, और मैं-
तपस्विनी आश्रम में जाती हूँ चली॥58॥

प्रिय से यह कहना महान-उद्देश्य से।
अति पुनीत-आश्रम में है उपनीत-तन॥
किन्तु प्राण पति पद-सरोज का सर्वदा।
बना रहेगा मधुप सेविका मुग्ध-मन॥59॥

मेरी अनुपस्थिति में प्राणाधार को।
विविध-असुविधाएँ होवेंगी इसलिए॥
इधर तुम्हारी दृष्टि अपेक्षित है अधिक।
सारे सुख कानन में तुमने हैं दिए॥60॥

यद्यपि तुम प्रियतम के सुख-सर्वस्व हो।
स्वयं सभी समुचित सेवाएँ करोगे॥
किन्तु नहीं जी माना इससे की विनय।
स्नेह-भाव से ही आशा है भरोगे॥61॥

सुन विदेहजा-कथन सुमित्रा-सुअन ने।
अश्रु-पूर्ण-दृग से आज्ञा स्वीकार की॥
फिर सादर कर मुनि-पद सिय-पग वन्दना।
अवध-प्रयाण-निमित्त प्रेम से विदा ली॥62॥

दोहा

कर मुनिवर की वन्दना रख विभूति-विश्वास।
जाकर आश्रम में किया जनक-सुता ने वास॥63॥