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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ २

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वे सुखित हुए जो बहुधा।
प्यासे रह-रह कर तरसे॥
झूमते हुए बादल के।
रिमझिम-रिमझिम जल बरसे॥21॥

तप-ऋतु में जो थे आकुल।
वे आज हैं फले-फूले॥
वारिद का बदन विलोके।
बासर विपत्ति के भूले॥22॥

तरु-खग-चय चहक-चहक कर।
थे कलोल-रत दिखलाते॥
वे उमग-उमग कर मानो।
थे वारि-वाह गुण गाते॥23॥

सारे-पशु बहु-पुलकित थे।
तृण-चय की देख प्रचुरता॥
अवलोक सजल-नाना-थल।
बन-अवनी अमित-रुचिरता॥24॥

सावन-शीला थी हो हो।
आवत्ता-जाल आवरिता॥
थी बड़े वेग से बहती।
रस से भरिता वन-सरिता॥25॥

बहुश: सोते बह-बह कर।
कल-कल रव रहे सुनाते॥
सर भर कर विपुल सलिल से।
थे सागर बने दिखाते॥26॥

उस पर वन-हरियाली ने।
था अपना झूला डाला॥
तृण-राजि विराज रही थी।
पहने मुक्तावलि-माला॥27॥

पावस से प्रतिपालित हो।
वसुधनुराग प्रिय-पय पी॥
रख हरियाली मुख-लाली।
बहु-तपी दूब थी पनपी॥28॥

मनमाना पानी पाकर।
था पुलकित विपुल दिखाता॥
पी-पी रट लगा पपीहा।
था अपनी प्यास बुझाता॥29॥

पाकर पयोद से जीवन।
तप के तापों से छूटी॥
अनुराग-मूर्ति 'बन', महि में।
विलसित थी बीर बहूटी॥30॥

निज-शान्ततम निकेतन में।
बैठी मिथिलेश-कुमारी॥
हो मुग्ध विलोक रही थीं।
नव-नील-जलद छबि न्यारी॥31॥

यह सोच रही थीं प्रियतम।
तन सा ही है यह सुन्दर॥
वैसा ही है दृग-रंजन।
वैसा ही महा-मनोहर॥32॥

पर क्षण-क्षण पर जो उसमें।
नवता है देखी जाती॥
वह नवल-नील-नीरद में।
है मुझे नहीं मिल पाती॥33॥

श्यामलघन में बक-माला।
उड़-उड़ है छटा दिखाती॥
पर प्रिय-उर-विलसित-
मुक्ता-माला है अधिक लुभाती॥34॥

श्यामावदात को चपला।
चमका कर है चौंकाती॥
पर प्रिय-तन-ज्योति दृगों में।
है विपुल-रस बरस जाती॥35॥

सर्वस्व है करुण-रस का।
है द्रवण-शीलता-सम्बल॥
है मूल भव-सरसता का।
है जलद आर्द्र-अन्तस्तल॥36॥

पर निरअपराध-जन पर भी।
वह वज्रपात करता है॥
ओले बरसा कर जीवन।
बहु-जीवों का हरता है॥37॥

है जनक प्रबल-प्लावन का।
है प्रलयंकर बन जाता॥
वह नगर, ग्राम, पुर को है।
पल में निमग्न कर पाता॥38॥

मैं सारे-गुण जलधार के।
जीवन-धन में पाती हँ॥
उसकी जैसी ही मृदुता।
अवलोके बलि जाती हूँ॥39॥

पर निरअपराध को प्रियतम-
ने कभी नहीं कलपाया॥
उनके हाथों से किसने।
कब कहाँ व्यर्थ दुख पाया॥40॥