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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ १

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चतुर्थ सर्ग : वसिष्ठाश्रम
छंद : तिलोकी

अवधपुरी के निकट मनोरम-भूमि में।
एक दिव्य-तम-आश्रम था शुचिता-सदन॥
बड़ी अलौकिक-शान्ति वहाँ थी राजती।
दिखलाता था विपुल-विकच भव का वदन॥1॥

प्रकृति वहाँ थी रुचिर दिखाती सर्वदा।
शीतल-मंद-समीर सतत हो सौरभित॥
बहता था बहु-ललित दिशाओं को बना।
पावन-सात्तिवक-सुखद-भाव से हो भरित॥2॥

हरी भरी तरु-राजि कान्त-कुसुमालि से।
विलसित रह फल-पुंज-भार से हो नमित॥
शोभित हो मन-नयन-विमोहन दलों से।
दर्शक जन को मुदित बनाती थी अमित॥3॥

रंग बिरंगी अनुपम-कोमलतामयी।
कुसुमावलि थी लसी पूत-सौरभ बसी॥
किसी लोक-सुन्दर की सुन्दरता दिखा।
जी की कली खिलाती थी उसकी हँसी॥4॥

कर उसका रसपान मधुप थे घूमते।
गूँज गूँज कानों को शुचि गाना सुना॥
आ आ कर तितलियाँ उन्हें थीं चूमती।
अनुरंजन का चाव दिखा कर चौगुना॥5॥

कमल-कोष में कभी बध्द होते न थे।
अंधे बनते थे न पुष्प-रज से भ्रमर॥
काँटे थे छेदते न उनके गात को।
नहीं तितलियों के पर देते थे कतर॥6॥

लता लहलही लाल लाल दल से लसी।
भरती थी दृग में अनुराग-ललामता॥
श्यामल-दल की बेलि बनाती मुग्ध थी।
दिखा किसी घन-रुचि-तन की शुचिश्यामता॥7॥

बना प्रफुल्ल फल फूल दान में हो निरत।
मंद मंद दोलित हो, वे थीं विलसती।
प्रात:-कालिक सरस-पवन से हो सुखित।
भू पर मंजुल मुक्तावलि थीं बरसती॥8॥

विहग-वृन्द कर गान कान्त-तम-कंठ से।
विरच विरच कर विपुल-विमोहक टोलियाँ॥
रहे बनाते मुग्ध दिखा तन की छटा।
बोल-बोल कर बड़ी अनूठी बोलियाँ॥9॥

काक कुटिलता वहाँ न था करता कभी।
काँ काँ रव कर था न कान को फोड़ता॥
पहुँच वहाँ के शान्त-वात-आवरण में।
हिंसक खग भी हिंसकता था छोड़ता॥10॥

नाच-नाच कर मोर दिखा नीलम-जटित।
अपने मंजुल-तम पंखों की माधुरी॥
खेल रहे थे गरल-रहित-अहि-वृन्द से।
बजा-बजा कर पूत-वृत्ति की बाँसुरी॥11॥

मरकत-मणि-निभ अपनी उत्तम-कान्ति से।
हरित-तृणावलि थी हृदयों को मोहती॥
प्रात:-कालिक किरण-मालिका-सूत्र में।
ओस-बिन्दु की मुक्तावलि थी पोहती॥12॥

विपुल-पुलकिता नवल-शस्य सी श्यामला।
बहुत दूर तक दूर्वावलि थी शोभिता॥
नील-कलेवर-जलधि ललित-लहरी समा।
मंद-पवन से मंद-मंद थी दोलिता॥13॥

कल-कल रव आकलिता-लसिता-पावनी।
गगन-विलसिता सुर-सरिता सी सुन्दरी॥
निर्मल-सलिला लीलामयी लुभावनी।
आश्रम सम्मुख थी सरसा-सरयू सरी॥14॥

परम-दिव्य-देवालय उसके कूल के।
कान्ति-निकेतन पूत-केतनों को उड़ा॥
पावनता भरते थे मानस-भाव में।
पातक-रत को पातक पंजे से छुड़ा॥15॥