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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ १

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तृतीय सर्ग : मन्त्रणा गृह
छन्द : चतुष्पद

मन्त्रणा गृह में प्रात:काल।
भरत लक्ष्मण रिपुसूदन संग॥
राम बैठे थे चिन्ता-मग्न।
छिड़ा था जनकात्मजा प्रसंग॥1॥

कथन दुर्मुख का आद्योपान्त।
राम ने सुना, कही यह बात॥
अमूलक जन-रव होवे किन्तु।
कीर्ति पर करता है पविपात॥2॥

हुआ है जो उपकृत वह व्यक्ति।
दोष को भी न कहेगा दोष॥
बना करता है जन-रव हेतु।
प्रायश: लोक का असन्तोष॥3॥

प्रजा-रंजन हित-साधन भाव।
राज्य-शासन का है वर-अंग॥
है प्रकृति प्रकृत नीति प्रतिकूल।
लोक आराधन व्रत का भंग॥4॥

क्यों टले बढ़ा लोक-अपवाद।
इस विषय में है क्या कर्तव्य॥
अधिक हित होगा जो हो ज्ञात।
बन्धुओं का क्या है वक्तव्य॥5॥

भरत सविनय बोले संसार।
विभामय होते हैं, तम-धाम॥
वहीं है अधम जनों का वास।
जहाँ हैं मिलते लोक-ललाम॥6॥

तो नहीं नीच-मना हैं अल्प।
यदि मही में हैं महिमावान॥
बुरों को है प्रिय पर-अपवाद।
भले हैं करते गौरव गान॥7॥

किसी को है विवेक से प्रेम।
किसी को प्यारा है अविवेक॥
जहाँ हैं हंस-वंश-अवतंस।
वहीं पर हैं बक-वृत्ति अनेक॥8॥

द्वेष परवश होकर ही लोग।
नहीं करते हैं निन्दावाद॥
वृथा दंभी जन भी कर दंभ।
सुनाते हैं अप्रिय सम्वाद॥9॥

दूसरों की रुचि को अवलोक।
कही जाती है कितनी बात॥
कहीं पर गतानुगतिक प्रवृत्ति।
निरर्थक करती है उत्पात॥10॥

लोक-आराधन है नृप-धर्म।
किन्तु इसका यह आशय है न॥
सुनी जाए उनकी भी बात।
जो बला ला पाते हैं चैन॥11॥

प्रजा के सकल-वास्तविक-स्वत्व।
व्यक्तिगत उसके सब-अधिकार॥
उसे हैं प्राप्त सुखी है सर्व।
सुकृति से कर वैभव-विस्तार॥12॥

कहीं है कलह न वैर विरोध।
कहाँ पर है धन धरा विवाद॥
तिरस्कृत है कलुषित चितवृत्ति।
त्यक्त है प्रबल-प्रपंच-प्रमाद॥13॥

सुधा है वहाँ बरसती आज।
जहाँ था बरस रहा अंगार॥
वहाँ है श्रुत स्वर्गीय निनाद।
जहाँ था रोदन हाहाकार॥14॥

गौरवित है मानव समुदाय।
गिरा का उर में हुए विकास॥
शिवा से है शिवता की प्राप्ति।
रमा का है घर-घर में वास॥15॥

बन गये हैं पारस सब मेरु।
उदधि करते हैं रत्न प्रदान॥
प्रसव करती है वसुधा स्वर्ण।
वन बने हैं नन्दन उद्यान॥16॥

सुखद-सुविधा से हो सम्पन्न।
सरसता है सरिता का गात॥
बना रहता है पावन वारि।
न करता है सावन उत्पात॥17॥

सदा रह हरे भरे तरु-वृन्द।
सफल बन करते हैं सत्कार
दिखाते हैं उत्फुल्ल प्रसून।
बहन कर बहु सौरभ संभार॥18॥

लोग इतने हैं सुख-सर्वस्व।
विकच इतना है चित जलजात॥
वार हैं बने पर्व के वार।
रात है दीप-मालिका रात॥19॥

हुआ अज्ञान का तिमिर दूर।
ज्ञान का फैला है आलोक॥
सुखद है सकल लोक को काल।
बना अवलोकनीय है ओक॥20॥