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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ ३

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बना सकी है भाग्य-शालिनी,
ऐ सुभगे तुमको जैसी।
त्रिभुवन में अवलोक न पाई,
मैं अब तक कोई वैसी॥41॥

इस धरती से कई लाख कोसों-
पर कान्त तुमारा है।
किन्तु बीच में कभी नहीं।
बहती वियोग की धारा है॥42॥

लाखों कोसों पर रहकर भी,
पति-समीप तुम रहती हो।
यह फल उन पुण्यों का है,
तुम जिसके बल से महती हो॥43॥

क्यों संयोग बाधिका बनती,
लाखों कोसों की दूरी॥
क्या होती हैं नहीं सती की
सकल कामनाएँ पूरी?॥44॥

ऐसी प्रगति मिली है तुमको,
अपनी पूत-प्रकृति द्वारा।
है हो गया विदूरित जिससे,
प्रिय-वियोग-संकट सारा॥45॥

सुकृतिवती हो सत्य-सुकृति-फल,
सारे-पातक खोता है।
उसके पावन-तम-प्रभाव में,
बहता रस का सोता है॥46॥

तुम तो लाखों कोस दूर की,
अवनी पर आ जाती हो।
फिर भी पति से पृथक न होकर,
पुलकित बनी दिखाती हो॥47॥

मुझे सौ सवा सौ कोसों की,
दूरी भी कलपाती है।
मेरी आकुल ऑंखों को।
पति-मूर्ति नहीं दिखलाती है॥48॥

जिसकी मुख-छवि को अवलोके,
छबिमय जगत दिखाता है।
जिसका सुन्दर विकच-वदन,
वसुधा को मुग्ध बनाता है॥49॥

जिसकी लोक-ललाम-मूर्ति,
भव-ललामता की जननी है।
जिसके आनन की अनुपमता,
परम-प्रमोद प्रसविनी है॥50॥

जिसकी अति-कमनीय-कान्ति से,
कान्तिमानता लसती है।
जिसकी महा-रुचिर-रचना में,
लोक-रुचिरता बसती है॥51॥

जिसकी दिव्य-मनोरमता में,
रम मन तम को खोता है।
जिसकी मंजु माधुरी पर,
माधुर्य निछावर होता है॥52॥

जिसकी आकृति सहज-सुकृति,
का बीज हृदय में बोती है।
जिसकी सरस-वचन की रचना,
मानस का मल धोती है॥53॥

जिसकी मृदु-मुसकान भुवन-
मोहकता की प्रिय-थाती है।
परमानन्द जनकता जननी,
जिसकी हँसी कहाती है॥54॥

भले-भले भावों से भर-भर,
जो भूतल को भाते हैं।
बड़े-बड़े लोचन जिसके,
अनुराग-रँगे दिखलाते हैं॥55॥

जिनकी लोकोत्तर लीलाएँ,
लोक-ललक की थाती हैं।
ललित-लालसाओं को विलसे,
जो उल्लसित बनाती हैं॥56॥

आजीवन जिनके चन्द्रानन की-
चकोरिका बनी रही।
जिसकी भव-मोहिनी सुधा प्रति-
दिन पी-पी कर मैं निबही॥57॥

जिन रविकुल-रवि को अवलोके,
रही कमलिनी सी फूली।
जिनके परम-पूत भावों की,
भावुकता पर थी भूली॥58॥

सिते! महीनों हुए नहीं उनका,
दर्शन मैंने पाया।
विधि-विधान ने कभी नहीं,
था मुझको इतना कलपाया॥59॥

जैसी तुम हो सुकृतिमयी जैसी-
तुममें सहृदयता है।
जैसी हो भवहित विधायिनी,
जैसी तुममें ममता है॥60॥