वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ १
द्वितीय सर्ग : चिन्तित चित्त
छन्द : चतुष्पद
अवध के राज मन्दिरों मध्य।
एक आलय था बहु-छबि-धाम॥
खिंचे थे जिसमें ऐसे चित्र।
जो कहाते थे लोक-ललाम॥1॥
दिव्य-तम कारु-कार्य अवलोक।
अलौकिक होता था आनन्द॥
रत्नमय पच्चीकारी देख।
दिव विभा पड़ जाती थी मन्द॥2॥
कला कृति इतनी थी कमनीय।
दिखाते थे सब चित्र सजीव॥
भाव की यथातथ्यता देख।
दृष्टि होती थी मुग्ध अतीव॥3॥
अंग-भंगी, आकृति की व्यक्ति।
चित्र के चित्रण की थी पूर्ति॥
ललित तम कर की खिंची लकीर।
बनी थी दिव्य-भूति की मूर्ति॥4॥
देखते हुए मुग्धकर-चित्र।
सदन में राम रहे थे घूम॥
चाह थी चित्रकार मिल जाए।
हाथ तो उसके लेवें चूम॥5॥
इसी अवसर पर आया एक-
गुप्तचर वहाँ विकंपित-गात॥
विनत हो वन्दन कर कर जोड़।
कही दुख से उसने यह बात॥6॥
प्रभो यह सेवक प्रात:काल।
घूमता फिरता चारों ओर॥
उस जगह पहुँचा जिसको लोग।
इस नगर का कहते हैं छोर॥7॥
वहाँ पर एक रजक हो क्रुध्द।
रोक कर गृह प्रवेश का द्वार॥
त्रिया को कड़ी दृष्टि से देख।
पूछता था यह बारम्बार॥8॥
बिताई गयी कहाँ पर रात्रि।
लगा कर लोक-लाज को लात॥
पापिनी कुल में लगा कलंक।
यहाँ क्यों आयी हुए प्रभात॥9॥
चली जा हो ऑंखों से दूर।
अब यहाँ क्या है तेरा काम॥
कर रही है तू भारी भूल।
जो समझती है तू मुझको राम॥10॥
रहीं जो पर-गृह में षट्मास।
हुई है उनकी उन्हें प्रतीति॥
बड़ों की बड़ी बात है किन्तु।
कलंकित करती है यह नीति॥11॥
प्रभो बतलाई थी यह बात।
विनय मैंने की थी बहु बार॥
नहीं माना जाता है ठीक।
जनकजा पुनर्ग्रहण व्यापार॥12॥
आदि में थी यह चर्चा अल्प।
कभी कोई कहता यह बात॥
और कहते भी वे ही लोग।
जिन्हें था धर्म-मर्म अज्ञात॥13॥
अब नगर भर में वह है व्याप्त।
बढ़ रहा है जन चित्त-विकार॥
जनपदों ग्रामों में सब ओर।
हो रहा है उसका विस्तार॥14॥
किन्तु साधारण जनता मध्य।
हुआ है उसका अधिक प्रसार॥
उन्हीं के भावों का प्रतिबिम्ब।
रजक का है निन्दित-उद्गार॥15॥
विवेकी विज्ञ सर्व-बुध-वृन्द।
कर रहे हैं सद्बुध्दि प्रदान॥
दिखाकर दिव्य-ज्ञान-आलोक।
दूर करते हैं तम अज्ञान॥16॥
अवांछित हो पर है यह सत्य।
बढ़ रहा है बहु-वाद-विवाद॥
प्रभो मैं जान सका न रहस्य।
किन्तु है निंद्य लोक-अपवाद॥17॥
राम ने बनकर बहु-गंभीर।
सुनी दुर्मुख के मुख की बात॥
फिर उसे देकर गमन निदेश।
सोचने लगे बन बहुत शान्त॥18॥
बात क्या है? क्यों यह अविवेक?।
जनकजा पर भी यह आक्षेप॥
उस सती पर जो हो अकलंक।
क्या बुरा है न पंक-निक्षेप॥19॥
निकलते ही मुख से यह बात।
पड़ गयी एक चित्र पर दृष्टि॥
देखते ही जिसके तत्काल।
दृगों में हुई सुधा की वृष्टि॥20॥