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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ २

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दारु का लगा हुआ अम्बार।
परम-पावक-मय बन हो लाल॥
जल रहा था धू-धू ध्वनि साथ।
ज्वालमाला से हो विकराल॥21॥

एक स्वर्गीय-सुन्दरी स्वच्छ-
पूततम-वसन किये परिधान॥
कर रही थी उसमें सुप्रवेश।
कमल-मुख था उत्फुल्ल महान॥22॥

परम-देदीप्यमान हो अंग।
बन गये थे बहु-तेज-निधन॥
दृगों से निकल ज्योति का पुंज।
बनाता था पावक को म्लान॥23॥

सामने खड़ा रिक्ष कपि यूथ।
कर रहा था बहु जय-जय कार॥
गगन में बिलसे विबुध विमान।
रहे बरसाते सुमन अपार॥24॥

बात कहते अंगारक पुंज।
बन गये विकच कुसुम उपमान।
लसी दिखलाईं उस पर सीय।
कमल पर कमलासना समान॥25॥

देखते रहे राम यह दृश्य।
कुछ समय तक हो हो उद्ग्रीव॥
फिर लगे कहने अपने आप।
क्या न यह कृति है दिव्य अतीव॥26॥

मैं कभी हुआ नहीं संदिग्ध।
हुआ किस काल में अविश्वास॥
भरा है प्रिया चित्त में प्रेम।
हृदय में है सत्यता निवास॥27॥

राजसी विभवों से मुँह मोड़।
स्वर्ग-दुर्लभ सुख का कर त्याग॥
सर्व प्रिय सम्बन्धों को भूल।
ग्रहण कर नाना विषय विराग॥28॥

गहन विपिनों में चौदह साल।
सदा छाया सम रह मम साथ॥
साँसतें सह खा फल दल मूल।
कभी पी करके केवल पाथ॥29॥

दुग्ध फेनोपम अनुपम सेज।
छोड़ मणि-मण्डित-कंचन-धाम॥
कुटी में रह सह नाना कष्ट।
बिताए हैं किसने वसुयाम॥30॥

कमलिनी-सी जो है सुकुमार।
कुसुम कोमल है जिसका गात॥
चटाई पर या भू पर पौढ़।
बिताई उसने है सब रात॥31॥

देख कर मेरे मुख की ओर।
भूलते थे सब दुख के भाव॥
मिल गये कहीं कंटकित पंथ।
छिदे किसके पंकज से पाँव॥32॥

नहीं घबरा पाती थी कौन।
देख फल दल के भाजन रिक्त॥
बनाती थी न किसे उद्विग्न।
टपकती कुटी धरा जल सिक्त॥33॥

भूल अपना पथ का अवसाद।
बदन को बना विकच जलजात॥
पास आ व्यजन डुलाती कौन।
देख कर स्वेद-सिक्त मम गात॥34॥

हमारे सुख का मुख अवलोक।
बना किसको बन सुर-उद्यान॥
कुसुम कंटक, चन्दन, तप-ताप।
प्रभंजन मलय-समीर समान॥35॥

कहाँ तुम और कहाँ वनवास।
यदि कभी कहता चले प्रसंग॥
तो विहँस कहतीं त्याग सकी न।
चन्द्रिका चन्द्र देव का संग॥36॥

दिखाया किसने अपना त्याग।
लगा लंका विभवों को लात॥
सहे किसने धारण कर धीर।
दानवों के अगणित-उत्पात॥37॥

दानवी दे दे नाना त्रास।
बनाकर रूप बड़ा विकराल॥
विकम्पित किसको बना सकी न।
दिखाकर बदन विनिर्गत ज्वाल॥38॥

लोक-त्रासक-दशआनन भीति।
उठी उसकी कठोर करवाल॥
बना किसको न सकी बहु त्रस्त।
सकी किसका न पतिव्रत टाल॥39॥

कौन कर नाना-व्रत-उपवास।
गलाती रहती थी निज गात॥
बिताया किसने संकट-काल।
तरु तले बैठी रह दिन रात॥40॥