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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ३

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नहीं सकती जो पर दुख देख।
हृदय जिसका है परम-उदार॥
सर्व जन सुख संकलन निमित्त।
भरा है जिसके उर में प्यार॥41॥

सरलता की जो है प्रतिमूर्ति।
सहजता है जिसकी प्रिय-नीति॥
बड़े कोमल हैं जिसके भाव।
परम-पावन है जिसकी प्रीति॥42॥

शान्ति-रत जिसकी मति को देख।
लोप होता रहता है कोप॥
मानसिक-तम करता है दूर।
दिव्य जिसके आनन का ओप॥43॥

सुरुचिमय है जिसकी चित-वृत्ति।
कुरुचि जिसको सकती है छू न॥
हृदय है इतना सरस दयार्द्र।
तोड़ पाते कर नहीं प्रसून॥44॥

करेगा उस पर शंका कौन।
क्यों न उसका होगा विश्वास॥
यही था अग्नि-परीक्षा मर्म।
हो न जिससे जग में उपहास॥45॥

अनिच्छा से हो खिन्न नितान्त।
किया था मैंने ही यह काम॥
प्रिया का ही था यह प्रस्ताव।
न लांछित हो जिससे मम नाम॥46॥

पर कहाँ सफल हुआ उद्देश।
लग रहा है जब वृथा कलंक॥
किसी कुल-बाला पर बन वक्र।
जब पड़ी लोक-दृष्टि नि:शंक॥47॥

सत्य होवे या वह हो झूठ।
या कि हो कलुषित चित्त प्रमाद॥
निंद्य है है अपकीर्ति-निकेत।
लांछना-निलय लोक-अपवाद॥48॥

भले ही कुछ न कहें बुध-वृन्द।
सज्जनों को हो सुने विषाद॥
किन्तु है यह जन-रव अच्छा न।
अवांछित है यह वाद-विवाद॥49॥

मिल सका मुझे न इसका भेद।
हो रहा है क्यों अधिक प्रसार॥
बन रहा है क्या साधन-हीन।
लोक-आराधन का व्यापार॥50॥

प्रकृति गत है, है उर में व्याप्त।
प्रजा-रंजन की नीति-पुनीत॥
दण्ड में यथा-उचित सर्वत्र।
है सरलता सद्भाव गृहीत॥51॥

न्याय को सदा मान कर न्याय।
किया मैंने न कभी अन्याय॥
दूर की मैंने पाप-प्रवृत।
पुण्यमय करके प्रचुर-उपाय॥52॥

सबल के सारे अत्याचार।
शमन में हूँ अद्यापि प्रवृत्ता॥
निर्बलों का बल बन दल दु:ख।
विपुल पुलकित होता है चित्त॥53॥

रहा रक्षित उत्तराधिकार।
छिना मुझसे कब किसका राज॥
प्रजा की बनी प्रजा-सम्पत्ति।
ली गयी कभी न वह कर व्याज॥54॥

मुझे है कूटनीति न पसंद।
सरलतम है मेरा व्यवहार॥
वंचना विजितों को कर ब्योंत।
बचाया मैंने बारंबार॥55॥

समझ नृप का उत्तर-दायित्व।
जान कर राज-धर्म का मर्म॥
ग्रहण कर उचित नम्रता भाव।
कर्मचारी करते हैं कर्म॥56॥

भूल कर भेद भाव की बात।
विलसिता समता है सर्वत्र॥
तुष्ट है प्रजामात्र बन शिष्ट।
सीख समुचित स्वतंत्रता मन्त्र॥57॥

परस्पर प्रीति का समझ लाभ।
हुए मानवता की अनुभूति॥
सुखित है जनता-सुख-मुख देख।
पा गए वांछित सकल-विभूति॥58॥

दानवों का हो गया निपात।
तिरोहित हुआ प्रबल आतंक॥
दूर हो गया धर्म का द्रोह।
शान्तिमय बना मेदिनी अंक॥59॥

निरापद हुए सर्व-शुभ-कर्म।
यज्ञ-बाधा का हुआ विनाश॥
टल गया पाप-पुंज तम-तोम।
विलोके पुण्य-प्रभात-प्रकाश॥60॥