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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ४

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कर रहे हैं सब कर्म स्वकीय।
समझ कर वर्णाश्रम का मर्म॥
बन गये हैं मर्यादा-शील।
धृति सहित धारण करके धर्म॥61॥

विलसती है घर-घर में शान्ति।
भरा है जन-जन में आनन्द॥
कहीं है कलह न कपटाचार।
न निन्दित-वृत्ति-जनित छल-छन्द॥62॥

हुए उत्तेजित मन के भाव।
शान्त बन जाते हैं तत्काल॥
याद कर मानवता का मन्त्र।
लोक नियमन पर ऑंखें डाल॥63॥

समय पर जल देते हैं मेघ।
सताती नहीं ईति की भीति॥
दिखाते कहीं नहीं दुर्वृत।
भरी है सब में प्रीति प्रतीति॥64॥

फिर हुई जनता क्यों अप्रसन्न।
हुआ क्यों प्रबल लोक-अपवाद॥
सुन रहे हैं क्यों मेरे कान।
असंगत अ-मनोरम सम्वाद॥65॥

लग रहा है क्यों वृथा कलंक।
खुला कैसे अकीर्ति का द्वार॥
समझ में आता नहीं रहस्य।
क्या करूँ मैं इसका प्रतिकार॥66॥

दोहा

इन बातों को सोचते, कहते सिय गुण ग्राम।
गये दूसरे गेह में, धीर धुरंधर राम॥67॥