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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ ३

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आकुलताएँ बार-बार आ मुझको बहुत सताएँगी।
किन्तु धर्म-पथ में धृति-धारण का सन्देश सुनाएँगी॥
अन्तस्तल की विविध-वृत्तियाँ बहुधा व्यथित बनाएँगी।
किन्तु वंद्यता विबुध-वृन्द-वन्दित की बतला जाएँगी॥31॥

लगी लालसाएँ लालायित हो हो कर कलपाएँगी।
किन्तु कल्पनातीत लोक-हित अवलोके बलि जाएँगी॥
आप जिसे हित समझें उस हित से ही मेरा नाता है।
हैं जीवन-सर्वस्व आप ही मेरे आप विधाता हैं॥32॥

कहा राम ने प्रिये, अब 'प्रिये' कहते कुण्ठित होता हूँ।
अपने सुख-पथ में अपने हाथों मैं काँटे बोता हूँ॥
मैं दुख भोगूँ व्यथा सहूँ इसकी मुझको परवाह नहीं।
पडूं संकटों में कितने निकलेगी मुँह से आह नहीं॥33॥

किन्तु सोचकर कष्ट तुमारा थाम कलेजा लेता हूँ।
कैसे क्या समझाऊँ जब मैं ही तुम को दुख देता हूँ॥
तो विचित्रता भला कौन है जो प्राय: घबराता हूँ।
अपने हृदय-वल्लभा को मैं वन-वासिनी बनाता हूँ॥34॥

धर्म-परायणता पर-दुख कातरता विदित तुमारी है।
भवहित-साधन-सलिल-मीनता तुमको अतिशय प्यारी है॥
तुम हो मूर्तिमती दयालुता दीन पर द्रवित होती हो।
संसृति के कमनीय क्षेत्रा में कर्म-बीज तुम बोती हो॥35॥

इसीलिए यह निश्चित था अवलोक परिस्थिति हित होगा।
स्थानान्तरित विचार तुमारे द्वारा अनुमोदित होगा॥
वही हुआ, पर विरह-वेदना भय से मैं बहु चिन्तित था।
देख तुमारी प्रेम प्रवणता अति अधीर था शंकित था॥36॥

किन्तु बात सुन प्रतिक्रिया की सहृदयता से भरी हुई।
उस प्रवृत्ति को शान्ति मिल गयी जो थी अयथा डरी हुई॥
तुम विशाल-हृदया हों मानवता है तुम से छबि पाती।
इसीलिए तुममें लोकोत्तर त्याग-वृत्ति है दिखलाती॥37॥

है प्राचीन पुनीत प्रथा यह मंगल की आकांक्षा से।
सब प्रकार की श्रेय दृष्टि से बालक हित की वांछा से॥
गर्भवती-महिला कुलपति-आश्रम में भेजी जाती है।
यथा-काल संस्कारादिक होने पर वापस आती है॥38॥

इसी सूत्र से वाल्मीकाश्रम में तुमको मैं भेजूँगा।
किसी को न कुत्सित विचार करने का अवसर मैं दूँगा॥
सब विचार से वह उत्तम है, है अतीव उपयुक्त वही।
यही वसिष्ठ देव अनुमति है शान्तिमयी है नीति यही॥39॥

तपो-भूमि का शान्त-आवरण परम-शान्ति तुमको देगा।
विरह-जनित-वेदना आदि की अतिशयता को हर लेगा॥
तपस्विनी नारियाँ ऋषिगणों की पत्नियाँ समादर दे।
तुमको सुखित बनाएँगी परिताप शमन का अवसर दे॥40॥
 
परम-निरापद जीवन होगा रह महर्षि की छाया में।
धरा सतत रहेगी बहती सत्प्रवृत्ति की काया में॥
विद्यालय की सुधी देवियाँ होंगी सहानुभूतिमयी।
जिससे होती सदा रहेगी विचलित-चित पर शान्ति जयी॥41॥

जिस दिन तुमको किसी लाल का चन्द्र-बदन दिखलाएगा।
जिस दिन अंक तुमारा रवि-कुल-रंजन से भर जाएगा॥
जिस दिन भाग्य खुलेगा मेरा पुत्र रत्न तुम पाओगी।
उस दिन उर विरहांधाकार में कुछ प्रकाश पा जाओगी॥42॥

प्रजा-पुंज की भ्रान्ति दूर हो, हो अशान्ति का उन्मूलन।
बुरी धारणा का विनाश हो, हो न अन्यथा उत्पीड़न॥
स्थानान्तरित-विधान इसी उद्देश्य से किया जाता है।
अत: आगमन मेरा आश्रम में संगत न दिखाता है॥43॥

प्रिये इसलिए जब तक पूरी शान्ति नहीं हो जावेगी।
लोकाराधन-नीति न जब तक पूर्ण-सफलता पावेगी॥
रहोगी वहाँ तुम जब तक मैं तब तक वहाँ न आऊँगा।
यह असह्य है, सहन-शक्ति पर मैं तुम से ही पाऊँगा॥44॥

आज की रुचिर राका-रजनी परम-दिव्य दिखलाती थी।
विहँस रहा था विधु पा उसको सिता मंद मुसकाती थी॥
किन्तु बात-की-बात में गगन-तल में वारिद घिर आया।
जो था सुन्दर समा सामने उस पर पड़ी मलिन-छाया॥45॥