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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ ४

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पर अब तो मैं देख रहा हूँ भाग रही है घन-माला।
बदले हवा समय ने आकर रजनी का संकट टाला॥
यथा समय आशा है यों ही दूर धर्म-संकट होगा।
मिले आत्मबल, आतप में सामने खड़ा वर-वट होगा॥46॥

चौपदे

जिससे अपकीर्ति न होवे।
लोकापवाद से छूटें॥
जिससे सद्भाव-विरोधी।
कितने ही बन्धन टूटें॥47॥

जिससे अशान्ति की ज्वाला।
प्रज्वलित न होने पावे॥
जिससे सुनीति-घन-माला।
घिर शान्ति-वारि बरसावे॥48॥

जिससे कि आपकी गरिमा।
बहु गरीयसी कहलावे॥
जिससे गौरविता भू हो।
भव में भवहित भर जावे॥49॥

जानकी ने कहा प्रभु मैं।
उस पथ की पथिका हूँगी॥
उभरे काँटों में से ही।
अति-सुन्दर-सुमन चुनूँगी॥50॥

पद-पंकज-पोत सहारे।
संसार-समुद्र तरूँगी॥
वह क्यों न हो गरलवाला।
मैं सरस सुधा ही लूँगी॥51॥

शुभ-चिन्तकता के बल से।
क्यों चिन्ता चिता बनेगी॥
उर-निधि-आकुलता सीपी।
हित-मोती सदा जनेगी॥52॥

प्रभु-चित्त-विमलता सोचे।
धुल जाएगा मल सारा॥
सुरसरिता बन जाएगी।
ऑंसू की बहती धरा॥53॥

कर याद दयानिधिता की।
भूलूँगी बातें दुख की॥
उर-तिमिर दूर कर देगी।
रति चन्द-विनिन्दक मुख की॥54॥

मैं नहीं बनूँगी व्यथिता।
कर सुधि करुणामयता की॥
मम हृदय न होगा विचलित।
अवगति से सहृदयता की॥55॥

होगी न वृत्ति वह जिससे।
खोऊँ प्रतीति जनता की॥
धृति-हीन न हूँगी समझे।
गति धर्म-धुरंधरता की॥56॥

कर भव-हित सच्चे जी से।
मुझमें निर्भयता होगी॥
जीवन-धन के जीवन में।
मेरी तन्मयता होगी॥57॥

दोहा

पति का सारा कथन सुन, कह बातें कथनीय।
रामचन्द्र-मुख-चन्द्र की, बनीं चकोरी सीय॥58॥