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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ २

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हैं प्रभात उत्फुल्ल-मूर्ति कुसुमों में पाते।
आहा! वे कैसे हैं फूले नहीं समाते॥
मानो वे हैं महानन्द-धरा में बहते।
खोल-खोल मुख वर-विनोद-बातें हैं कहते॥21॥

है उसकी माधुरी विहग-रट में मिल पाती।
जो मिठास से किसे नहीं है मुग्ध बनाती॥
मन्द-मन्द बह बह समीर सौरभ फैलाता।
सुख-स्पर्श सद्गंधा-सदन है उसे बताता॥22॥

हैं उसकी दिव्यता दमक किरणें दिखलाती।
जगी-ज्योति उसको ज्योतिर्मय है बतलाती॥
सहज-सरसता, मोहकता, सरिता है कहती।
ललित लहर-लिपि-माला में है लिखती रहती॥23॥

जगी हुई जनता निज कोलाहल के द्वारा।
कर्म-क्षेत्र में बही विविध-कर्मों की धारा॥
उसकी जाग्रत करण क्रिया को है जतलाती।
नाना-गौरव-गीत सहज-स्वर से है गाती॥24॥

लोक-नयन-आलोक, रुचिर-जीवन-संचारक।
स्फूर्ति-मूर्ति उत्साह-उत्स जागृति-प्रचारक॥
भव का प्रकृत-स्वरूप-प्रदर्शक, छबि-निर्माता।
है प्रभात उल्लास-लसित दिव्यता-विधाता॥25॥

कितनी है कमनीय-प्रकृति कैसे बतलाएँ।
उसके सकल-अलौकिक गुण-गण कैसे गायें॥
है अतीव-कोमला विश्व-मोहक-छबि वाली।
बड़ी सुन्दरी सहज-स्वभावा भोली-भाली॥।26॥

करुणभाव से सिक्त सदयता की है देवी।
है संसृति की भूति-राशि पद-पंकज-सेवी॥
हैं उसके बहु-रूप विविधता है वरणीया।
प्रात:-कालिक-मूर्ति अधिकतर है रमणीया॥27॥

जनक-सुता ने कहा प्रकृति-महिमा है महती।
पर वह कैसे लोक-यातनाएँ है सहती॥
क्या है हृदय-विहीन? तो अखिल-हृदय बना क्यों?
यदि है सहृदय ऑंखों से ऑंसू न छना क्यों?॥28॥

यदि वह जड़ है तो चेतन क्यों, चेत, न पाया।
दु:ख-दग्ध संसार किस लिए गया बनाया॥
कितनी सुन्दर-सरस-दिव्य-रचना वह होती।
जिसमें मानस-हंस सदा पाता सुख-मोती॥29॥

कुछ पहले थी निशा सुन्दरी कैसी लसती।
सिता-साटिका मिले रही कैसी वह हँसती॥
पहन तारकावलि की मंजुल-मुक्ता-माला।
चन्द्र-वदन अवलोक सुधा का पी पी प्याला॥30॥

प्राय: उल्का पुंज पात से उद्भासित बन।
दीपावलि का मिले सर्वदा दीप्ति-मान-तन॥
देखे कतिपय-विकच-प्रसूनों पर छबि छाई।
विभावरी थी विपुल विनोदमयी दिखलाई॥31॥

अमित-दिव्य-तारक-चय द्वारा विभु-विभुता की।
जिसने दिखलाई दिव-दिवता की बर-झाँकी॥
भव-विराम जिसके विभवों पर है अवलंबित।
वह रजनी इस काल-काल द्वारा है कवलित॥32॥

जो मयंक नभतल को था बहु कान्त बनाता।
वसुंधरा पर सरस-सुधा जो था बरसाता॥
जो रजनी को लोक-रंजिनी है कर पाता।
वही तेज-हत हो अब है डूबता दिखाता॥33॥

जो सरयू इस समय सरस-तम है दिखलाती।
उठा-उठा कर ललित लहर जो है ललचाती॥
शान्त, धीर, गति जिसकी है मृदुता सिखलाती।
ज्योतिमयी बन जो है अन्तर-ज्योति जगाती॥34॥

सावन का कर संग वही पातक करती है।
कर निमग्न बहु जीवों का जीवन हरती है॥
डुबा बहुत से सदन, गिराकर तट-विटपी को।
करती है जल-मग्न शस्य-श्यामला मही को॥35॥

कल मैंने था जिन फूलों को फूला देखा।
जिनकी छबि पर मधुप-निकर को भूला देखा॥
प्रफुल्लता जिनकी थी बहु उत्फुल्ल बनाती।
जिनकी मंजुल-महँक मुदित मन को कर पाती॥36॥

उनमें से कुछ धूल में पड़े हैं दिखलाते।
कुछ हैं कुम्हला गये और कुछ हैं कुम्हलाते॥
कितने हैं छबि-हीन बने नुचते हैं कितने।
कितने हैं उतने न कान्त पहले थे जितने॥37॥

सुन्दरता में कौन कर सका समता जिनकी।
उन्हें मिली है आयु एक दिन या दो दिन की॥
फूलों सा उत्फुल्ल कौन भव में दिखलाया।
किन्तु उन्होंने कितना लघु-जीवन है पाया॥38॥

स्वर्णपुरी का दहन आज भी भूल न पाया।
बड़ा भयंकर-दृश्य उस समय था दिखलाया॥
निरअपराध बालक-विलाप अबला का क्रंदन।
विवश-वृध्द-वृध्दाओं का व्याकुल बन रोदन॥39॥

रोगी-जन की हाय-हाय आहें कृश-जन की।
जलते जन की त्राहि-त्राहि कातरता मन की॥
ज्वाला से घिर गये व्यक्तियों का चिल्लाना।
अवलोके गृह-दाह गृही का थर्रा जाना॥40॥