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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ १

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षष्ठ सर्ग : कातरोक्ति
छन्द : पादाकुलक

प्रवहमान प्रात:-समीर था।
उसकी गति में थी मंथरता॥
रजनी-मणिमाला थी टूटी।
पर प्राची थी प्रभा-विरहिता॥1॥

छोटे-छोटे घन के टुकड़े।
घूम रहे थे नभ-मण्डल में॥
मलिना-छाया पतित हुई थी।
प्राय: जल के अन्तस्तल में॥2॥

कुछ कालोपरान्त कुछ लाली।
काले घन-खण्डों ने पाई॥
खड़ी ओट में उनकी ऊषा।
अलस भाव से भरी दिखाई॥3॥

अरुण-अरुणिमा देख रही थी।
पर था कुछ परदा सा डाला॥
छिक-छिक करके भी क्षिति-तल पर।
फैल रहा था अब उँजियाला॥4॥

दिन-मणि निकले तेजोहत से।
रुक-रुक करके किरणें फूटीं॥
छूट किसी अवरोधक-कर से।
छिटिक-छिटिक धरती पर टूटीं॥5॥

राज-भवन हो गया कलरवित।
बजने लगा वाद्य तोरण पर॥
दिव्य-मन्दिरों को कर मुखरित।
दूर सुन पड़ा वेद-ध्वनि स्वर॥6॥

इसी समय मंथर गति से चल।
पहुँची जनकात्मजा वहाँ पर॥
कौशल्या देवी बैठी थीं।
बनी विकलता-मूर्ति जहाँ पर॥7॥

पग-वन्दन कर जनक-नन्दिनी।
उनके पास बैठ कर बोलीं॥
धीरज धार कर विनत-भाव से।
प्रिय-उक्तियाँ थैलियाँ खोलीं॥8॥

कर मंगल-कामना प्रसव की।
जनन-क्रिया की सद्वांछा से॥
सकल-लोक उपकार-परायण।
पुत्र-प्राप्ति की आकांक्षा से॥9॥

हैं पतिदेव भेजते मुझको।
वाल्मीक के पुण्याश्रम में॥
दीपक वहाँ बलेगा ऐसा।
जो आलोक करेगा तम में॥10॥

आज्ञा लेने मैं आयी हूँ।
और यह निवेदन है मेरा॥
यह दें आशीर्वाद सदा ही।
रहे सामने दिव्य सबेरा॥11॥

दुख है अब मैं कर न सकूँगी।
कुछ दिन पद-पंकज की सेवा॥
आह प्रति-दिवस मिल न सकेगा।
अब दर्शन मंजुल-तम-मेवा॥12॥

माता की ममता है मानी।
किस मुँह से क्या सकती हूँ कह॥
पर मेरा मन नहीं मानता।
मेरी विनय इसलिए है यह॥13॥

मैं प्रति-दिन अपने हाथों से।
सारे व्यंजन रही बनाती॥
पास बैठ कर पंखा झल-झल।
प्यार सहित थी उन्हें खिलाती॥14॥

प्रिय-तम सुख-साधन-आराधन।
में थी सारा-दिवस बिताती॥
उनके पुलके रही पुलकती।
उनके कुम्हलाये कुम्हलाती॥15॥

हैं गुणवती दासियाँ कितनी।
हैं पाचक पाचिका नहीं कम॥
पर है किसी में नहीं मिलती।
जितना वांछनीय है संयम॥16॥

जरा-जर्जरित स्वयं आप हैं।
है क्षन्तव्य धृष्टता मेरी॥
इतना कह कर जननि आपकी।
केवल दृष्टि इधर है फेरी॥17॥

कहा श्रीमती कौशल्या ने।
मुझे ज्ञात हैं सारी बातें॥
मंगलमय हो पंथ तुम्हारा।
बनें दिव्य-दिन रंजित-रातें॥18॥

पुण्य-कार्य है गुरु-निदेश है।
है यह प्रथा प्रशंसनीय-तम॥
कभी न अविहित-कर्म करेगा।
रघुकुल-पुंगव प्रथित-नृपोत्तम॥19॥

आश्रम-वास-काल होता है।
कुलपति द्वारा ही अवधरित॥
बरसों का यह काल हुए, क्यों?
मेरे दिन होंगे अतिवाहित॥20॥