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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ २

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मंगल-मूलक महत्कार्य है।
है विभूतिमय यह शुभ-यात्रा॥
पूरित इसके अवयव में है।
प्रफुल्लता की पूरी मात्र॥21॥

किन्तु नहीं रोके रुकता है।
ऑंसू ऑंखों में है आता॥
समझाती हूँ पर मेरा मन।
मेरी बात नहीं सुन पाता॥22॥

तुम्हीं राज-भवनों की श्री हो।
तुमसे वे हैं शोभा पाते॥
तुम्हें लाभ करके विकसित हो।
वे हैं हँसते से दिखलाते॥23॥

मंगल-मय हो, पर न किसी को।
यात्रा-समाचार भाता है॥
ऐसी कौन ऑंख हैं जिसमें।
तुरंत नहीं ऑंसू आता है॥24॥

गृह में आज यही चर्चा है।
जावेंगी तो कब आवेंगी॥
कौन सुदिन वह होगा जिस दिन।
कृपा-वारि आ बरसावेंगी॥25॥

हो अनाथ-जन की अवलम्बन।
हृदय बड़ा कोमल पाया है॥
भरी सरलता है रग रग में।
पूत-सुरसरी सी काया है॥26॥

जब देखा तब हँसते देखा।
क्रोध नहीं तुमको आता है॥
कटु बातें कब मुख से निकलीं।
वचन सुधा-रस बरसाता है॥27॥

जैसी तुम में पुत्री वैसी।
किस जी में ममता जगती है॥
और को कलपता अवलोके।
कौन यों कलपने लगती है॥28॥

बिना बुलाए मेरा दुख सुन।
कौन दौड़ती आ जाती थी॥
पास बैठकर कितनी रातें।
जगकर कौन बिता जाती थी॥29॥

मेरा क्या दासी का दुख भी।
तुम देखने नहीं पाती थीं।
भगिनी के समान ही उसकी।
सेवा में भी लग जाती थीं॥30॥

विदा माँगते समय की कही।
विनयमयी तब बातें कहकर॥
रोईं बार-बार कैकेयी।
बनीं सुमित्रा ऑंखें निर्झर॥31॥

उनकी आकुलता अवलोके।
कल्ह रात भर नींद न आई॥
रह-रह घबराती हूँ, जी में।
आज भी उदासी है छाई॥32॥

तुम जितनी हो, कैकेयी को।
है न माण्डवी उतनी प्यारी॥
बंधुओं बलित सुमित्रा में भी।
देखी ममता अधिक तुमारी॥33॥

फिर जिसकी ऑंखों की पुतली।
लकुटी जिस वृध्दा के कर की॥
छिनेगी न कैसे वह कलपे।
छाया रही न जिसके सिर की॥34॥

जिसकी हृदय-वल्लभा तुम हो।
जो तुमको पलकों पर रखता॥
प्रीति-कसौटी पर कस जो है।
पावन-प्रेम-सुवर्ण परखता॥35॥

जिसका पत्नी-व्रत प्रसिध्द है।
जो है पावन-चरित कहाता॥
देख तुमारा अरविन्दानन।
जो है विकच-वदन दिखलाता॥36॥

जिसकी सुख-सर्वस्व तुम्हीं हो।
जिसकी हो आनन्द-विधाता॥
जिसकी तुम हो शक्ति-स्वरूपा।
जो तुम से पौरुष है पाता॥37॥

जिसकी सिध्दि-दायिनी तुम हो।
तुम सच्ची गृहिणी हो जिसकी॥
सब तन-मन-धन अर्पण कर भी।
अब तक बनी ऋणी हो जिसकी॥38॥

अरुचिर कुटिल-नीति से ऊबे।
जिसको तुम पुलकित करती हो॥
जिसके विचलित-चिन्तित-चित में।
चारु-चित्तता तुम भरती हो॥39॥

कैसे काल कटेगा उसका।
उसको क्यों न वेदना होगी॥
होते हृदय मनुज-तन-धर वह।
बन पाएगा क्यों न वियोगी॥40॥