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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ ३

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रघुनन्दन है धीर-धुरंधर।
धर्म प्राण है भव-हित-रत है॥
लोकाराधन में है तत्पर।
सत्य-संध है सत्य-व्रत है॥41॥

नीति-निपुण है न्याय-निरत है।
परम-उदार महान-हृदय है॥
पर उसको भी गूढ़ समस्या।
विचलित करती यथा समय है॥42॥

ऐसे अवसर पर सहायता।
सच्ची वह तुमसे पाता था॥
मंद-मंद बहते मारुत से।
घिरा घन-पटल टल जाता था॥43॥

है विपत्ति-निधि-पोत-स्वरूपा।
सहकारिणी सिध्दियों की है॥
है पत्नी केवल न गेहिनी।
सहधार्मिणी मन्त्रिणी भी है॥44॥

खान पान सेवा की बातें।
कह तुमने है मुझे रुलाया॥
अपनी व्यथा कहूँ मैं कैसे।
आह कलेजा मुँह को आया॥45॥

जिस दिन सुत ने आ प्रफुल्ल हो।
आश्रम-वास-प्रसंग सुनाया॥
उस दिन उस प्रफुल्लता में भी।
मुझको मिली व्यथा की छाया॥46॥

मिले चतुर्दश-वत्सर का वन।
राज्य श्री की हुए विमुखता॥
कान्ति-विहीन न जो हो पाया।
दूर हुई जिसकी न विकचता॥47॥

क्यों वह मुख जैसा कि चाहिए।
वैसा नहीं प्रफुल्ल दिखाता॥
तेज-वन्त-रवि के सम्मुख क्यों।
है रज-पुंज कभी आ जाता॥48॥

आत्मत्याग का बल है सुत को।
उसकी सहन-शक्ति है न्यारी॥
वह परार्थ-अर्पित-जीवन है।
है रघुकुल-मुख-उज्ज्वलकारी॥49॥

है मम-कातरोक्ति स्वाभाविक।
व्यथित हृदय का आश्वासन है॥
शिरोधार्य गुरु-देवाज्ञा है।
मांगलिक सुअन-अनुशासन है॥50॥

रोला

जाओ पुत्री परम-पूज्य पति-पथ पहचानो।
जाओ अनुपम-कीर्ति वितान जगत में तानो॥
जाओ रह पुण्याश्रम में वांछित फल पाओ।
पुत्र-रत्न कर प्रसव वंश को वंद्य बनाओ॥51॥

जाओ मुनि-पुंगव-प्रभाव की प्रभा बढ़ाओ।
जाओ परम-पुनीत-प्रथा की ध्वजा उड़ाओ॥
जाओ आकर यथा-शीघ्र उर-तिमिर भगाओ।
निज-विधु-वदन समेत लाल-विधु-वदन दिखाओ॥52॥

इतना कह कर मौन हुई कौशल्या माता।
किन्तु युगल-नयनों से उनके था जल जाता॥
विविध-सान्त्वना-वचन कहे प्रकृतिस्थ हुईं जब।
पग-वन्दन कर जनक-नन्दिनी विदा हुईं तब॥53॥

सखी

जब घर आई तब देखा।
बहनें आकर हैं बैठी॥
हैं खिन्न मना दुख-मग्ना।
उद्वेगांबुधि में पैठी॥54॥

देखते माण्डवी बोली।
क्या सुनती हूँ मैं जीजी॥
वह निठुर बनेगी कैसे।
जो रही सदैव पसीजी॥55॥

तुम कहाँ चली जाती हो।
क्यों किसी को न बतलाया॥
इतनी कठोरता करके।
क्यों सब को बहुत रुलाया॥56॥

हम सब भी साथ चलेंगी।
सेवाएँ सभी करेंगी॥
पर घर पर बैठी रह कर।
नित आहें नहीं भरेंगी॥57॥

वाल्मीकाश्रम में जाकर।
कब तक तुम वहाँ रहोगी॥
यह ज्ञात नहीं तुमको भी।
कुछ कैसे भला कहोगी॥58॥

दस पाँच बरस तक तुमको।
जो रहना पड़ जाएगा॥
'विच्छेद' बलाएँ कितनी।
हम लोगों पर लाएगा॥59॥

कर अनुगामिता तुमारी।
सुखमय है सदन हमारा॥
कलुषित-उर में भी बहती।
रहती है सुर-सरि-धरा॥60॥