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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तम सर्ग / पृष्ठ २

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खड़ा हुआ सामने सुरथ था।
सजा हुआ देवयान जैसा॥
उसे सती ने विलोक सोचा।
प्रयाण में अब विलम्ब कैसा॥21॥

वसिष्ठ देवादि को विनय से।
प्रणाम कर कान्त पास आई॥
इसी समय नन्दिनी जनक की।
अतीव-विह्वल हुई दिखाई॥22॥

परन्तु तत्काल ही सँभल कर।
निदेश माँगा विनम्र बन के॥
परन्तु करते पदाब्ज-वन्दन।
विविध बने भाव वर-वदन के॥23॥

कमल-नयन राम ने कमल से-
मृदुल करों से पकड़ प्रिया-कर॥
दिखा हृदय-प्रेम की प्रवणता।
उन्हें बिठाला मनोज्ञ रथ पर॥24॥

उचित जगह पर विदेहजा को।
विराजती जब बिलोक पाया॥
सवार सौमित्र भी हुए तब।
सुमित्र ने यान को चलाया॥25॥

बजे मधुर-वाद्य तोरणों पर।
सुगान होता हुआ सुनाया॥
हुए विविध मंगलाचरण भी।
सजल-कलस सामने दिखाया॥26॥

निकल सकल राज-तोरणों से।
पहुँच गया यान जब वहाँ पर॥
जहाँ खड़ी थी अपार-जनता।
सजी सड़क पर प्रफुल्ल होकर॥27॥

बड़ी हुई तब प्रसून-वर्षा।
पतिव्रता जय गयी बुलाई॥
सविधि गयी आरती उतारी।
बड़ी धूम से बजी बधाई॥28॥

खड़ी द्वार पर कुलांगनाएँ।
रहीं मांगलिक-गान सुनाती॥
विनम्र हो हो पसार अंचल।
रहीं राजकुल कुशल मनाती॥29॥

शनै: शनै: मंजुराज-पथ पर।
चला जा रहा था मनोज्ञ रथ॥
अजस्र जयनाद हो रहा था।
बरस रहा फूल था यथातथ॥30॥

निमग्न आनन्द में नगर था।
बनीं सुमनमय अनेक-सड़कें॥
थके न कर आरती उतारे।
दिखे दिव्यता थकीं न ललकें॥31॥

नगर हुआ जब समाप्त सिय ने।
तुरन्त सौमित्र को विलोका॥
सुमित्र ने भाव को समझकर।
सम्भाल ली रास यान रोका॥32॥

उतर सुमित्र-कुमार रथ से।
अपार-जनता समीप आये॥
कहा कृपा है महान जो यों।
कृपाधिकारी गये बनाए॥33॥

अनुष्ठिता मांगलिक सुयात्रा।
भला न क्यों सिध्दि को बरेगी॥
समस्त-जनता प्रफुल्ल हो जो।
अपूर्व-शुभ-कामना करेगी॥34॥

कृपा दिखा आप लोग आये।
कुशल मनाया, हितैषिता की॥
विविध मांगलिक-विधान द्वारा।
समर्चना की दिवांगना की॥35॥

हुईं कृतज्ञा-अतीव आर्य्या।
विशेष हैं धन्यवाद देती॥
विनय यही है बढ़ें न आगे।
विराम क्यों है ललक न लेती॥36॥

बहुत दूर आ गये ठहरिये।
न कीजिए आप लोग अब श्रम॥
सुखित न होंगी कदापि आर्य्या।
न जाएँगे आप लोग जो थम॥37॥

कृपा करें आप लोग जायें।
विनम्र हो ईश से मनावें॥
प्रसव करें पुत्र-रत्न आर्य्या।
मयंक नभ-अंक में उगावें॥38॥

सुने सुमित्र-कुमार बातें।
दिशा हुई जय-निनाद भरिता॥
बही उरों में सकल-जनों के।
तरंगिता बन विनोद-सरिता॥39॥

पुन: सुनाई पड़ा राजकुल।
सदा कमल सा खिला दिखावे॥
यथा-शीघ्र फिर अवध धाम में।
वन्दनीयतम-पद पड़ पावे॥40॥