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वै मुरली की टेर सुनावत / सूरदास

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राग गौरी


वै मुरली की टेर सुनावत ।
बृंदाबन सब बासर बसि निसि-आगम जानि चले ब्रज आवत ॥
सुबल, सुदामा, श्रीदामा सँग, सखा मध्य मोहन छबि पावत ।
सुरभी-गन सब लै आगैं करि, कोउ टेरत कोउ बेनु बजावत ॥
केकी-पच्छ-मुकुट सिर भ्राजत, गौरी राग मिलै सुर गावत ।
सूर स्याम के ललित बदन पर, गोरज-छबि कछु चंद छपावत ॥

पूरे दिनभर वृन्दावन में रहकर, रात्रि आने वाली है--यह समझकर वह (श्याम) ध्वनि सुनाता हुआ व्रज चला आ रहा है । सुबल, सुदामा, श्रीदामा आदि सखाओं के बीच में मोहन शोभित हो रहा है । गायों के समूह को सब ने हाँककर आगे कर लिया है; कोई पुकार रहा है और कोई वंशी बजा रहा है । (श्याम के) मस्तक पर मोरपंख का मुकुट शोभा दे रहा है और वह गौरी राग में (सखाओं से) स्वर मिलाकर गा रहा है । सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर के मनोहर मुख पर गायों के पदोंसे उड़ी धूलि ऐसी लगती है जैसे चन्द्रमा कुछ-कुछ (बादलों मे) छिपा है ।