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वो अह्दे-ग़म की काहिशहा-ए-बेहासिल को क्या समझे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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फ़ैज़ ने इस ग़ज़ल को शीर्षक दिया था- "अशआ'र"
वो अह्दे-ग़म<ref>दुख के दिन</ref> की काहिशहा-ए-बेहासिल<ref>व्यर्थ वेदना</ref> को क्या समझे
जो उनकी मुख़्तसर रूदाद भी सब्र-आज़मा<ref>उकता देने वाला</ref> समझे
यहाँ वाबस्तगी, वाँ बरहमी<ref>नाराज़गी</ref>, क्या जानिए क्यों है
न हम अपनी नज़र समझे, न हम उनकी अदा समझे
फ़रेबे-आरज़ू की सहल-अंगारी<ref>सुगमता की खोज</ref> नहीं जाती
हम अपने दिल की धड़कन को तिरी आवाज़े-पा समझे
तुम्हारी हर नज़र से मुनसलिक<ref>बँधा हुआ</ref> है रिश्तः-ए-हस्ती
मगर ये दूर की बातें कोई नादान क्या समझे
न पूछो अह्दे-उल्फ़त की, बस इक ख़्वाबे-परीशाँ<ref>बिखरा हुआ सपना</ref> था
न दिल को राह पर लाए, न दिल को मुद्दआ<ref>उद्देश्य, अभीष्ट</ref> समझे
शब्दार्थ
<references/>