वो ऊपर उठने की कोशिश करे हज़ार भले
ज़मीं, ज़मीं है रहेगी ये आस्मां के तले
जो सख़्तजां थे उन्हें वक़्त ने यूँ मोम किया
दहकती आग में फ़ौलाद जिस तरह पिघले
ये तय था तुन्द हवाओं से जूझना है हमें
हम एक भीड़ का जंगल भी साथ ले के चले
घरों तक आ चुके बाज़ारवाद ने यूँ किया
कि आज अपने ही अपनों से जा रहे हैं छले
लगा ये देख के खुद को और उनकी बातों को
ये पौधा अब न फलेगा घने शजर के तले
विरोध करने का साहस भी था न लोगों में
न ज़ुल्म भी था उतरता मगर किसी के गले
फ़रिश्ता हो कि वो इन्सान हो कि हो 'दरवेश'
वो कब ढला है बदी में यहाँ जो अब वो ढले