भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो ख़्वाब था बिखर गया, ख़याल था मिला नहीं / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


वो ख्वाब था बिखर गया ,ख़याल था मिला नहीं
मगर ये दिल को क्या हुआ, ये क्यूँ बुझा पता नहीं

सकूंन का पता नहीं वो हल कभी मिला नहीं
कि तन से तन भी जुड़ गए क्यूं दिल से दिल जुड़ा नहीं

अजीब जिंदगी रही , जो रौशनी न पा सकी
लहू जिगर का भी दिया ,मगर दिया जला नहीं

पढ़ा जो खत सकूं मिला, लिखा था हाल-ए-दिल मेरा
जवाब में मैं क्या लिखूं ,यूँ खत कभी लिखा नहीं

जुबाँ न उसकी कह सकी ,नज़र ने सब वो कह दिया
मगर वो राज़ ही रहा , कहीं कभी खुला नहीं

लो आफ़ताब ढल गया, है शाम सिर पे आ गई
तेरा पता कहाँ से लूँ यूँ खुद का भी पता नहीं