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वो जब तक अंजुमन में जलवा फ़रमाने नहीं आते / शेर सिंह नाज़ 'देहलवी'

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वो जब तक अंजुमन में जलवा फ़रमाने नहीं आते
सुराही रक़्स में गर्दिश में पैमाने नहीं आते

शरीक-ए-दर्द बन कर अपने बेगाने नहीं आते
मय-ए-इशरत जो पीते हैं वो ग़म खाने नहीं आते

लिपट कर शम्अ की लौ से लगी दिल की बुझातें हैं
पराई आग में जलने को परवाने नहीं अतो

उड़ाते ही फिरेंगे उम्र भर वो ख़ाक सहरा की
तिरी ज़ुल्फ़ों के साए में जो दीवाने नहीं आते

जो अपनी आन पर ऐ ‘नाज़’ अपनी जान देते थे
ज़माने में नज़र अब ऐसे दीवाने नहीं आते