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वो जो दम दोस्ती का भरते थे / परमानन्द शर्मा 'शरर'
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वो जो दम दोस्ती का भरते थे
आज क्यों अजनबी-से लगते हैं
वज़अदारी<ref>औपचारिकता</ref> नपे-तुले अल्फ़ाज़
मुझको सब सरसरी से लगते हैं
इस ज़माने को क्या हुआ यारो
रिश्ते सब आरज़ी<ref>अस्थाई</ref>-से लगते हैं
फ़ैज़े-साक़ी कहाँ हुआ अनक़ा
जाम सबके तही -से लगते हैं
ग़म के वो लम्हे जब क़रार न था
हासिले-ज़िन्दगी-से <ref>जीवन की प्राप्ति</ref>-से लगते हैं
इस जले दौर मे भी कुछ इन्साँ
वाक़ई आदमी-से लगते हैं
मौसमे-गुल हो या हो दौरे-ख़िज़ाँ<ref>पतझड़</ref>
अब ‘शरर’ एक ही-से लगते हैं
शब्दार्थ
<references/>