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वो तो आईना-नुमा था मुझ को / शबनम शकील

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वो तो आईना-नुमा था मुझ को
किस लिए उस से गिला था मुझ को

दे गया उम्र की तन्हाई मुझे
एक महफिल में मिला था मुझको

ता मुझे छोड़ सको पतझड़ में
इस लिए फूल कहा था मुझ को

तुम हो मरकज़ मेरी तहरीरों का
तुम ने इक ख़त में लिखा था मुझ को

मैं भी करती थी बहारों की तलाश
एक सौदा सा हुआ था मुझ को

अब पशेमान हैं दुनिया वाले
ख़ुद ही मस्लूब किया था मुझ को

अब धड़कता है मगर सूरत-ए-दिल
जख़्म इक तुम ने दिया था मुझ को