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वो नाज़ुक सा तबस्सुम रह गया वहम / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'
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वो नाज़ुक सा तबस्सुम रह गया वहम-ए-हसीं बन कर
नुमायाँ हो गया ज़ौक़-ए-सितम चीन-ए-जबीं बन कर
बहुत इतरा रही है रात ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं बन कर
बहुत मग़रूर है नूर-ए-सहर रंग-ए-जबीं बन कर
मेरी जामा-दरी ने राज़ ये खोला ज़माने पर
ख़िरद धोके दिया करती है जैब ओ आस्तीं बन कर
करम में भी मगर इक ग़म्ज़ा-ए-ख़ून-रेज़ शामिल था
निगाहों की तरफ़ उट्ठी तो दिल की नुक्ता-चीं बन कर
मेरी दीवानगी थी इक शरार-ए-आरज़ू दिल में
बढ़ी तो दार पर रौशन हुई शम्मा-ए-यक़ीं बन कर
पयाम आते रहे अक्सर किसी महव-ए-तग़ाफ़ुल के
अदा-ए-बर-मला बन कर निगाह-ए-शर्मगीं बन कर
वो इक सजदा न हो पाया जो बर्बाद-ए-हरम 'ताबाँ'
जबीन-ए-शौक़ पर रौशन है पिंदार-ए-जबीं बन कर