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वो मन्दिर की हो मस्जिद की हो या चौखट हसीनों की / शोभा कुक्कल

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वो मन्दिर की हो मस्जिद की हो या चौखट हसीनों की
हर इक चौखट पे झुक जाना ही आदत है ज़बीनों की

कभी गर्मी कभी सर्दी कभी बरसात आती है
अलग तासीर होती साल के सारे महीनों की

हमेशा शोरो-शर की महफ़िलों से दूर ही रहना
वही आदत है बरसों से तिरे गोशा-नशीनों की

बनाते जा रहे हैं बिल्डिंगे बिल्डर
नहीं है क़द्र इनको कुछ भी उपजाऊ ज़मीनों की

खुले हैं बाल, पैंटे तंगतर, है चाल मस्तानी
नज़ाकत तो कोई देखे ज़रा इन नाज़नीनों की

कभी सन्तों की संगत में भी घबराता है दिल अपना
कभी मिलता है दिल को चैन सुहबत में हसीनों की

किया करते हैं हम तो पार दरिया ज़ोरे-बाज़ू से
नहीं है हम को ऐ 'शोभा' कोई हाजत सफीनों की।