वो मसीहा क़ब्र पर आता रहा / मरदान अली ख़ान 'राना'
वो मसीहा क़ब्र पर आता रहा
मैं मुए पर रोज़ जी जाता रहा
ज़िन्दगी की हमने मर-मर के बसर
वो बुत-ए-तर सा जो तरसाता रहा
वाह, बख्त-ए-ना-रसा!<ref>फूटी क़िस्मत</ref> देखा तुझे
नामाबर<ref>डाकिया</ref> से ख़त कहीं जाता रहा
राह तकते-तकते आख़िर जाँ गयी
वो तग़ाफ़ुल-केश<ref>लापरवाह/नज़रअंदाज़ करने वाला</ref> बस आता रहा
दिल तो देने को दिया पर हम-नशीं<ref>साथी</ref>
हाथ मैं मल-मल के पछताता रहा
देख उसको हो गया मैं बे-ख़बर
दिल यकायक हाथ से जाता रहा
क्या कहूँ किस तरह फुरक़त<ref>जुदाई</ref> में जिया
ख़ून-ए-दिल पीता तो ग़म खाता रहा
रात भर उस बर्क़-ए-दुश<ref>बिजली की तरह क्षणिक रूप से नज़र आने वाला</ref> की याद में
सेल-ए-अश्क<ref>आँसुओं की बौछार</ref> आँखों से बरसाता रहा
ढूँढता फिरता हूँ उसको जा-ब-जा<ref>इधर-उधर</ref>
दिल ख़ुदा जाने किधर जाता रहा
उस मसीहा की उमीद-ए-वस्ल<ref>मिलने की उम्मीद</ref> में
शाम जीता सुबह मर जाता रहा
इश्क़ का 'राना' मरज़ है ला-दवा<ref>जिसकी कोई दवा न हो</ref>
कब सुना तूने कि वो जाता रहा