वो महफ़िलें, वो शाम सुहानी कहाँ गई / साग़र पालमपुरी

वो महफ़िलें, वो शाम सुहानी कहाँ गई

मेह्र—ओ—वफ़ा की रस्म पुरानी कहाँ गई


कुंदन —सा जिस्म चाट गई मौसमों की आग

चुनरी वो जिसका रंग था धानी कहाँ गई


कहते हैं उस सराए में होटल है आजकल

पुरखों की वो अज़ीम निशानी कहाँ गई


इतने कटे हैं पेड़ कि बंजर हुई ज़मीन

नदियों की पुरख़राम रवानी कहाँ गई


खिलते थे कँवल जिसमें वो तालाब ख़ुश्क है

बदली वो जिससे मिलता था पानी कहाँ गई


मकर—ओ—रया के क़िस्से हैं सबकी ज़बान पर

उल्फ़त की पुर—ख़ुलूस कहानी कहाँ गई


‘साग़र’! ये आन पहुँचे हैं हम किस मुक़ाम पर

मुड़—मुड़ के देखते हैं जवानी कहाँ गई !

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