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वो मेरी पीढ़ी के देवता / कर्मानंद आर्य

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ओ मेरी पीढ़ी के अंतिम देवता
तुम्हारी आँखों में फूलने वाले बेहया के फूल
अकुंठित तुम्हारी हंसी
नर्म बाहों में समाने वाली उसकी भुजाएँ
कब कहेंगी तुम्हें
उठो और तोड़ दो पीढियो के बंधन

मानसिक दासता में जकड़े
तुम्हारे घुटने से लहू रिसता है आज भी
लहू जो तुम्हारी शिराओं में काला पड गया है
रमिया, सोल्हू, भाम्बी
जिनके आदर्शों में तुम्हारी छवि है
जिनके सपने तुम्हारे होने के बराबर है

जिनके इशारों में अड़हुल खिल रहे हैं
जिनकी अंगुलियाँ पत्थर तराश रही हैं किताबों में

जो बिना शर्तों के परिवर्तन चाहते हैं
जिनकी जिन्दा साँसों को एक अदद घर चाहिए
तुम्हारे भीतर

अहिंसा सत्य अस्तेय
सब खाते-पीते लोगों के बनाये प्रतिमान
उस समय जूठ हो जाते हैं
जब भूख की कविता जन्म लेती है
जब भय का व्याकरण दहाड़ता है

ओ मेरी पीढ़ी के अंतिम देवता
हम तुमसे खूनी क्रांति नहीं चाहते
हम तुमसे अधिक की कामना नहीं करते
पर जिस जमीर को पुरखों ने माँ की तरह संभाला
वह तुमसे धूमिल ना हो