भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो रुत भी आई कि मैं फूल की सहेली हुई / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
वो रुत भी आई कि मैं फूल की सहेली हुई
महक में चम्पाकली रूप में चमेली हुई
मैं सर्द रात की बरखा से क्यूँ न प्यार करूँ
ये रुत तो है मिरे बचपन के साथ खेली हुई
ज़मीन पे पाँव नहीं पड़ रहे तकब्बुर से
निगार ए गम कोई दुल्हन नयी नवेली हुई
वो चाँद बन के मिरे साथ साथ चलता रहा
मैं उसके हिज्र की रातों में कब अकेली हुई
जो हर्फ़ ए सादा की सूरत हमेशा लिक्खी गई
वो लड़की किस तरह तेरे लिए पहेली हुई