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वो रौशनी के ब-क़ैद-ए-सहर नहीं ऐ / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'
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वो रौशनी के ब-क़ैद-ए-सहर नहीं ऐ दोस्त
तेरा जमाल है मेरी नज़र नहीं ऐ दोस्त
तेरे बग़ैर वो शाम ओ सहर नहीं ऐ दोस्त
कोई चराग़ सर-ए-रह-गुज़र नहीं ऐ दोस्त
बहाना ढूँढ लिया तुझ से बात करने का
कुछ और मक़सद-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं ऐ दोस्त
शब-ए-फ़िराक़ ये महवियतों का आलम है
किसी की हाए किसी को ख़बर नहीं ऐ दोस्त
मह ओ नुजूम भी गर्म-ए-सफ़र तो हैं लेकिन
कोई भी उन में मेरा हम-सफ़र नहीं ऐ दोस्त
कभी उधर से जो गुज़रे तो सरसरी गुज़रे
सवाद-ए-तूर तेरी रह-गुज़र नहीं ऐ दोस्त