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वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं / जाँ निसार अख़्तर

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वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं
जो इश्क़ में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं

तूफ़ानों की आवाज़ तो आती नहीं लेकिन
लगता है सफ़ीने से कहीं डूब रहे हैं

उनको न पुकारों गमेदौरां के लक़ब से
जो दर्द किसी नाम से मंसूब रहे हैं

हम भी तेरी सूरत के परस्तार हैं लेकिन
कुछ और भी चेहरे हमें मरगूब रहे हैं

इस अहदे बसीरत में भी नक्क़ाद हमारे
हर एक बड़े नाम से मरऊब रहे हैं