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वो सो रहा था दीप्तिमान / बरीस पास्तेरनाक / अनिल जनविजय

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डॉ० जिवागो’ उपन्यास में शामिल एक कविता - 2

बलूत काठ से बने पालने में वो सो रहा था दीप्तिमान,
ज्यों किसी वृक्ष के खोखल में गिरे चन्द्रकिरण प्रभावान ।
अब पहना दिया गया था उसे भेड़ की खाल का फ़रकोट
उसके नथुने थे बैलों के जैसे और किसी गधे के जैसे होंठ ।
  
वे खड़े हुए थे छाँव में ज्यों किसी पशुबाड़े के धुन्धलके में,
फुसफुसा रहे थे आपस में वे, औ’ शब्द बुन रहे थे बहके से ।
तभी किसी ने धकेल दिया बाएँ उसे उस अन्धेरे में दुनियावी,
दूर किया पालने से इस तरह वह जादूगर, सयाना मायावी ।

अतिथि सी मरियम कुँवारी को, देखा गुफ़ाद्वार से उसने भीतर,
क्रिसमस का तारा झाँक रहा था, वहाँ आसमान से धरती पर।


मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय
 
लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
                   Борис Пастернака
Стихотворение из романа «Доктор Живаго»

Он спал, весь сияющий, в яслях из дуба,
Как месяца луч в углубленье дупла.
Ему заменяли овчинную шубу
Ослиные губы и ноздри вола.

Стояли в тени, словно в сумраке хлева,
Шептались, едва подбирая слова.
Вдруг кто-то в потёмках, немного налево
От яслей рукой отодвинул волхва,

И тот оглянулся: с порога на Деву,
Как гостья, смотрела звезда Рождества.