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वो हुस्न जिसको देख के कुछ भी कहा न जाए / खलीलुर्रहमान आज़मी
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वो हुस्न जिसको देख के कुछ भी कहा न जाए
दिल की लगी उसी से कहे बिन रहा न जाए ।
क्या जाने कब से दिल में है अपना बसा हुआ
ऐसा नगर कि जिसमें कोई रास्ता न जाए ।
दामन रफ़ू करो कि बहुत तेज़ है हवा
दिल का चिराग़ फिर कोई आकर बुझा न जाए ।
नाज़ुक बहुत है रिश्त-ए दिल तेज़ मत चलो
देखो तुम्हारे हाथ से यह सिलसिला न जाए ।
इक वो भी हैं कि ग़ैर को बुनते हैं जो कफ़न
इक हम कि अपना चाक गिरेबाँ सिया न जाए ।