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व्यतिक्रम / अजित कुमार
Kavita Kosh से
नदी ने धारा बदली कि धारा ने नदी ?
इतने वर्षों
हम अपने को उघारते रहे
कि ढकते-मूँदते
कुछ भी ज्ञात है नहीं ।
काली शक्ल को उजली
मानने में क्या तुक था?
अपने देश को अपनाना
क्या कुछ कम नाज़ुक था ?
उलटबाँसी
एक फाँसी है-
लगते ही मुक्ति देगी ।
जिसको लेना हो, ले ।
आधी भीतर
आधी बाहर
साँस मुझे कोई दे ।
चालीस वर्ष तक
एक वही रेंढना राग
इकतालीस में प्रियतर
बयालीस में अन्यतम
सत्तावन में समापन ।
एक तीर था
छूटकर लक्ष्य से
भटका
पर जहाँ भी जा अटका
वही लक्ष्य था उसका
अचूक और निश्चित …
जो धारा थी, वह भी नदी
जो धारा है, वह भी नदी
केवल पूछना है इतना—
वह नदी मुझे क्यों न दी ?