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व्यथै व्यथा छ मनभरि खुशी खोजूँ कतातिर ? / रवि प्राञ्जल

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व्यथै व्यथा छ मनभरि खुशी खोजूँ कतातिर ?
साउन भदौ छ गहभरि नदी खोजूँ कतातिर ?

आरु फुल्यो बैशाखमा पीडा फुल्यो मुटुभरी
चरो परेछ जालमा चरी खोजूँ कतातिर ?

मुटु चिरी बनाऊँ कि, रातो रगतको मसी
मेरो कथा लेखूँ कहाँ? मसी खोजूँ कतातिर ?

आगो पनि छ छातीमा, हूरी पनि छ छातीमा
चट्टान भैm अडिग जिन्दगी खोजूँ कतातिर ?

यो भीडमा हरायो कि, त्यो पीरमा हरायो कि
त्यो मेघ जस्तै गर्जने ‘रवि’ खोजूँ कतातिर ?