व्यर्थ ही अभिमान करता / अशेष श्रीवास्तव
व्यर्थ ही अभिमान करता
अपने ज्ञान पर
जबकि ऐ मानव तुझे
कुछ पता नहीं...
किसलिये आया है तू
भेजा यहाँ किसने तुझे
प्रवास कितने दिन करेगा
कुछ पता नहीं...
गर्व यदि इस धन पर करता
मान और वैभव पर करता
उपभोग कितने दिन करेगा
कुछ पता नहीं...
लाखों करोड़ों वर्षों से
कितने ही आये और गये
आये कहाँ से गये कहाँ
कुछ पता नहीं...
मैं का अर्थ यदि आत्मा है
क्यों कि शरीर नाशवान है
आत्मा ये फ़िर होती है क्या
कुछ पता नहीं...
निर्माण कर्ता सृष्टि का
यदि कोई ईश्वर है
उस ईश को किसने रचा
कुछ पता नहीं...
यदि न मैं उत्पन्न होता
ना ही ये संसार होता
किसको कहाँ क्या फ़र्क पड़ता
कुछ पता नहीं...
मरण ही अंतिम चरण है
यदि मानव जीवन का
उत्पन्न ही फ़िर हम क्यों हुए
कुछ पता नहीं...
यदि ईश्वर एक है और
धर्म जोड़ता है मनुष्य को ईश्वर से
तो धर्म इतने क्यों हैं
कुछ पता नहीं...
यदि वह समाया है सब में
तो मनुष्य-मनुष्य का
शत्रु क्यों है
कुछ पता नहीं...
खाली हाथ आये थे
खाली हाथ ही जायेंगे
विस्तार इतना किसलिये
कुछ पता नहीं...
जन्म और मृत्यु यदि
खेल है उस ईश का
खेल ये करता वह क्यों
कुछ पता नहीं...
रात दिन ना जाने कितने
प्रश्न ऐसे ही उभरते
किन्तु उनके उत्तरों का
कुछ पता नहीं...
समाधान इन प्रश्नों का
कदाचित ये हो सकता है
वर्तमान में रहो
वर्तमान को जियो
सदकर्म ही कर्तव्य है
सदकर्म तुम करते रहो
पर सेवा ही धर्म है
ये धर्म तुम करते रहो
विस्मृत कर दो इन प्रश्नों को
कि तुम्हें कुछ पता नहीं...