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व्यसन में ख़ुद को उलझाये हुए हैं / अजय अज्ञात
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व्यसन में ख़ुद को उलझाये हुए हैं
हम अपने दिल को बहलाये हुए हैं
नहीं है धुंध मौसम में ज़रा भी
तुम्हारे चश्मे धुंधलाए हुए हैं
दिलासा कौन देता है किसी को
नयन क्यूँ व्यर्थ छलकाए हुए हैं
सुखों के इतने आदी हो गए हम
ज़रा से दुख से घबराये हुए हैं
नहीं तक़दीर उनका साथ देगी
बुजुर्गों को जो बिसराए हुए हैं
यहाँ अब फल हक़ीक़त के लगेंगे
बहुत से ख़्वाब बौराये हुए हैं
तेरे अशआर में ‘अज्ञात’ कैसे
ये ज़ख़्मे दिल भी मुस्काये हुए हैं