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व्यस्तताएँ / उपेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
हो गई हैं इकट्ठी
बहुत सारी व्यस्तताएँ
चलें
अपरिचित
निरापद जगह
और छोड़ आएँ
व्यस्तताएँ
मुक्त हो बोझ से
चल दें
कहीं भी
पानी में भीगने
बूंदों से पुलक कर मिलने
या मूसलाधार पर हँसते हुए
रुकें किसी कोने में
और कसकर थाम लें
एक दूसरे की हथेलियाँ
जब हम निकलेंगे
घूमने
तो हवा शीतल होगी
हल्की
पारदर्शी
चाँदनी
पिघली होगी
पगडंडियों पर
जो गुजर रही होगी
हमसे होकर
जब चल रहे होंगे
साथ-साथ
तुम्हारे पद-चिन्हों पर
उग आएँगी कोपलें
उन्हें हथेलियों के बीच रखूँगा मैं
छतनार वृक्ष बनने तक
फिर
अमृत बन
दूर तक फैलेगी छाया
चलो छोड़ आएँ अब
व्यस्तताएँ