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व्यास कुंड / सुदर्शन वशिष्ठ

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व्यास कुण्ड से जो निकली नन्हीं धारा
अभी-अभी
चली ठुमक-ठुमक धीमे-धीमे
देखते ही देखते उछली
बिदकी बहकी ओझल हुई।

पानी में पानी की पहचान नहीं है
सारा पानी एक सा
जो बहा जा रहा नदी में
इसमें वह पानी भी था
जो निकला व्यास कुण्ड से उस क्षण
पानी में पानी
पानी में पानी
नहीं रही कोई निशानी।

वह भी पानी था जो
पूजन के बाद लगाया आँखों में
वह भी पानी
जिससे किया तर्पण पितरों को
वह भी पानी
जो धोता पाप पवित्र करता
वह भी
जो गिरे चातक की चोंच में
जो गिरे खुली सीपी में
वह भी पानी जो प्सास बुझाए
वह भी
जो अंतिम समय गले में जाए
वह भी पानी
जो बहा झरने से स्वच्छ निष्कलँक।

वह भी पानी जो नाली में मिला
वह भी पानी जो बहता रहा
साफ रहा
वह भी पानी जो रुका
गंदा हुआ
वह भी पानी
जो जमता गया नीलम हुआ
वह भी जो रेत में गया जीवन हुआ।

वह भी पानी था
जो अँजुरी भर छोड़ा था
व्यास कुण्ड में
ढूँढता फिरता हूँ उसे
धारा, नदी और समुद्र में।