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व्रज-वीथिन एक बाला डोलै / स्वामी सनातनदेव

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राग आसावरी, तीन ताल 11.9.1974

ब्रज बीथिन एक बाला डोलै।
आई गोरस बेचनकों पै ‘लेहु गोपाल-गोपाल’ हि बोलै॥
तन-मन की सुधि-बुधि सब भूली, स्रवनन सुनत न कोउ ठठोलै।
स्रवन नयन सब भये वृथा ही, ज्यों भुजंग की कंचुक-खोलै<ref>साँप की काँचुली छोड़ देने पर छोड़ी हुई सर्प की काँचुली</ref>॥
बिथुरों अलक खलक<ref>संसार</ref> सब भूली, डगमगात-सी इत-उत डोलै।
कुल की कानि-हानि का मानें, लाज बिकी प्रिय-रति के मोलै॥2॥
लोक वेद मरजादा भूली, फूली फिरै गोठ के ओलै<ref>आस-पास</ref>।
प्रीतम-प्रीति सुधा-रस राती, सुरति-सिता ता में जनु घोलै॥3॥
जुरि आईं व्रज-वनिता, बहु विधि बोध करहिं, पै नैन न खोलै।
नैनन में ही बसी छैल छवि, कैसे तासों इत-उत डोलै॥4॥
आय गये तब मोहन ही उत, मृदु मुरली सुनि हिय कछु डोलै।
अकी-जकी सी रही निरखि छवि, लाज-लजी पै उर रस घौलै॥5॥

शब्दार्थ
<references/>