भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शंकाएँ / नचिकेता
Kavita Kosh से
फिर सवालों ने
उठाईं कई शंकाएँ
क्यों हरी पत्तियाँ
टूटीं डाल से, सोचो
उड़ गई बतखें अचानक
ताल से, सोचो
क्यों रहा है
समय अपनी लाँघ सीमाएँ
फूट आँखें गई
क्यों उजली शुआओं की
और बदली चाल है अंधड़
हवाओं की
क्यों न उत्तर खोज पातीं
सही चर्चाएँ
लग रही हर
रोशनी बेहाल जैसी क्यों
आदमी की शक्ल है कुछ
लाल जैसी क्यों
दे रहीं संकेत किसका
जली उल्काएँ।