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शकुन्तला / अध्याय 16 / भाग 2 / दामोदर लालदास

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खोर-खार न होय पावक, ता न ज्वालक रंग।
टसल जा नहि जाय, लह्-लह् होय ता न भजंग।।
तादृशहिं जा सुप्त शौर्यहुँ नहि जगाओल जाय।
ता न रण-वीरहुंक लोचन भृकुटियुग लहराय।

से त्रिजग-विजयी छलहुं अपने हतप्रभ भेल।
तें रचल हम शौर्य-ज्वालक हेतु प्रेतक खेल।।
आब सुनु वीराग्रणी! अपने सुरेन्द्र‘समाद।
रण-निमंत्रण लय, चलू अमरावती साह्नाद।।

चढ़ल धनुपर वज्र-शर तहि निशिचर हिंपर तानु।
जकर भीषण आक्रमण सुरलोक हेतु कृशानु।।
शत्रुनाशन! पाकशासन कयल अछि आह्नान।
तूर्ण सज्जित भय चलू, अछि आसनार्थ विमान।।

अस्तु, इन्द्र विमान चढि़ उड़ला तुरन्त नरेन्द्र।
जतय आदर-मान-स्वागत कयल बेश सुरेन्द्र।।
कालनेमिक वंशमे दुर्जय निशाचर व्यूह।
देवलोकहिपर चढ़ल छल यातुधान-समूह।।

हूलि नृप रणक्षेत्रमे भट देवसैन्यक सँग।
हस्तलाधवसँ प्रतापक, हतल शत्रुक अंग।।
वीरता निज से प्रदर्शित कयल नृप दुष्यन्त।
मुइल सैन्य समेत खल-दल नायको बलवन्त।।

लय विजय जय जयति तुमुलध्वनिक रत अविराम।
परम हर्षित भेल अयला नृप सुरेन्द्रक धाम।।
पाकशासन अद्धं आसन स्वासनहि पर देल।
अतुल स्वागत पाबि नृपकें उर प्रफुल्लित भेल।।

चन्दने-कस्तूरिका सिंचित गरक फुल-माल।
जे पहिरबा हेतु लायायित शचीपति-लाल।।
से न तकरा देल सुरपति नृपंक गर पहिराय।
कयल स्वागत जे अनुपमसे न बरनल जाय।।