शबे फ़ुरकत बहुत घबरा रहा हूँ... / चंद्रभूषण
सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शबे फ़ुरकत बहुत घबरा रहा हूँ...
एक झटके में कुछ लाख साल बढ़ गई उम्र
एक क्षण मे पूरी ज़िंदगी याद आ गई
स्वास्थ्य कैसा है, पूछा बुजुर्ग साथी ने
फिर कहा, यह बात तो आपको मुझ से पूछनी चाहिए।
देखता रहा मैं उनके चेहरे में मानस पिता का चेहरा
फिर झेंपते हुए कहा, आप तो अटल हो पर्वत की तरह-
जिस पर किसी का बस नही, उसी का बस आप पर चले तो चले।
हाल मेरा ही पूछो, लहरों में थपेडे़ खाते हुए का
बोले, यह तो चलते रहना है, जब तक जीवन है
फिर चुप हो गए यह सोचकर कि कहीं दुखी तो नही कर रहे मुझे।
एक साथी ने कहा कभी उधर भी आइये
मैने कहा,बारह साल से सोच रहा हूँ, चार-छह दिन मिले तो कभी आऊं
दिल्ली की तीखी धूप मे उन्होने पसीना पोंछा
सुरती होंठो मे दबाई और हिप्नोटिक आंखो से अपनी
मेरे डूबते दिल को थामते से बोले
एक दिन,एक घंटे के लिए भी आइये, लेकिन आइये।
फिर एक साथी ने बातों-बातों में मुझे चम्पारन घुमा दिया
गंडक के पानी से लदी तराई वाला चम्पारन
जहाँ हाथ भर खोदने से पानी निकल आता है
जहाँ दो सौ वर्ग किलोमीटर वाले जमींदार रहते हैं
और जहाँ से भागते हैं हर साल हज़ारो लोग
देस-कुदेस में खटकर ज़िंदगी चलाने।
तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी की गाड़ी का बम्पर पकड़े रस्ते की रगड़ खाता मैं
ठिठक कर देखता रहा दस मिनट का चम्पारन
और अपने सामने खड़ा हंसता हुआ एक आदमी
जो जिस ज़मीन पर खड़ा होता है वहीं पर हरियाली छा जाती है
मेरे मन के भीतर से कोई पूछता है
भाई, इन बारह वर्षों मे हम दोनो कहॉ से कहॉ पंहुचे
कितना आगे बढ़ा आन्दोलन और कितनी आगे बढ़ी नौकरी
बताने को ज्यादा कुछ है नहीं
इतिहास में कौन कब कहॉ पंहुचता है?
क्या है पैमाना,जिस पर नापा जाय कि कौन कहॉ पंहुचा?
पैमाने को तय करने वाला भी है कौन ?
फिर सोचता हूँ,किन चीजों से नापी जायेगी मेरी उम्र
कोई ओहदा,कुछ पैसे,कोई गाड़ी,कोई घर, कुछ महंगे समान
या फिर कुछ साल जो बहुत घरों में बहुत लोगों का सगा होकर गुजरे?
बहुत तकलीफ़देह है रैली के बाद घर लौटना-
रिश्तों के दो अर्थों मे होकर दो फाड़।
शबे फ़ुरकत बहुत घबरा रहा हूँ
सितारों से उलझता जा रहा हूँ...