शब्द और पहाड़ / पवन चौहान
घर में बैठ
पहाड़ पर चर्चा करने वालों
तुम बोलते बहुत अच्छा हो
तुम्हारे शब्दों में सम्मोहन है, ताकत है
पहाड़ की तरह
तुम्हारे शब्द दृढ़, विशाल, सुंदर, कल्पनाशील
तो कभी चंचल भी हो जाते हैं
पहाड़ की तरह
ग्लेशियरों का डर
बादल फटने की कंपकपाहट
दुर्गम रास्तों का जोखिम भरा लंबा सफर
बर्फ में दफन घरों की
दफन-सी जिंदगी का अहसास भी
करवा देते हैं तुम्हारे
चंद ही शब्द
परंतु तब क्या!
जब शब्दों तक ही सिमट जाती हैं
तुम्हारी संवेदनाएं
और चार दिवारी में ही कैद हो जाता है
तुम्हारा खिलखिलाता हौंसला भी
उस वक्त डरे, सहमें, बेबस,
दर्द से सराबोर
शिथिल, बौने से हो जाते हैं
तुम्हारे शब्द
और दम तोड़ते नजर आते हैं
उस पहाड़ की तरह
जो काट लिया जाता है
कुछ स्वार्थों के लिए
और तुम
एकदम से गुंगे, बहरे और अंधे बनकर
देखते रहते हो उसकी मौत
परत दर परत
किश्तों में
अंतिम सांस के मरते ही
तुम ढक लेते हो पहाड़ को
एक बार फिर
उन्ही शब्दों के कफन से
और उसकी पीठ पर लाद देते हो
बहुत से छोटे-बड़े
आधुनिक कंकरीट के पहाड़
और बस...
यहीं से ही
क्षीण हो जाती हैं तुम्हारी संवेदनाएं,
चपलताएं और बेबुनियाद कल्पनाएं
पहुंच जाती हैं वे
किसी कैकयी के कोप भवन में
और फिर दफन होने लगता है
तुम्हारा कहा एक-एक शब्द
बारी-बारी
निरंतरता के साथ
खुद की मौत तक।