भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शब्द से उपजा शून्य-शहर / प्रवीण कुमार अंशुमान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शब्दों की पढ़कर वर्णमाला
अक्षर की दौड़ खूब लगाई
ध्वनि के मद में हो पागल
उच्चारण की ज्योति डूब जलाई
शब्द-सुधा में कर स्नान

ध्वनि-वीणा में बहता ज्ञान
झंकृत धुन जब हुई निष्णात
इर्द-गिर्द करके आघात
मृदंग शून्य का जब बजता है
शब्द निलय फिर तब सजता है

मत सोच शून्य को एक शिखर
जो होता बस उस ओर प्रखर
जहाँ न कुछ भी होता है
चहुँ ओर जहाँ सब खोता है
स्तब्ध हुआ जब कोई हृदय

मन जब रह जाता अवाक्
शून्य समझ में तब आता है
कर निःशब्द जब देखें झाँक
शून्य शब्द का ही अनुभव है
शब्दों का ही ये वैभव है

अंधकार उन्हें ही दिखता है
जिनकी आँखें रोशन होती हैं
आँखों से जो है रिक्त कोई
नहीं उसे कुछ ज्ञात कहीं
उजाले को जो लेता देख

वही अंधकार को जान है पाता
जिसके पास ना सुख नयन का
वो अंधकार भी नहीं जान पाता
इसलिए शून्य में शब्द समाया
शब्द से उपजा है शून्य-शहर

जो जितना अक्षर को जाने
उतना ही तीव्र शब्द पहचाने
शब्द-निःशब्द के बीच खड़े होकर
शून्य की ज्योति जो जलाता है
प्रारब्ध अंत के बीच स्तब्ध खड़ा
वो असली ज्ञान बताता है