शब्द (कविता) / कुमार कृष्ण
शब्द जब लिखते हैं रिश्तों की परिभाषाएँ
वे उगते हैं डरने अपनी ही परछांई से
शब्द जब गाते हैं ज़िन्दगी की ग़ज़ल
वे भीग जाते हैं सिर से पांव तक
शब्द जब करते हैं प्रार्थना
बजने लगती हैं तरह-तरह की घंटियाँ
शब्द जब चले जाते हैं हथेलियों के बीच
मौन हो जाते हैं शब्द
शब्द जीवन की आग हैं राग हैं धरती का
तुम चाहे जितना भी छुपा लो उनको शब्दकोशों के भीतर
उनको आता है चिड़ियों की तरह उड़ना
शब्द हंसते हैं, रोते हैं, नाचते हैं, गाते हैं
थकना नहीं जानते शब्द
उनको आता है भाषा कि गोद में आराम करना
शब्द जब गुनगुनाते हैं दादी के होंठों पर
घूमने लगती है सपनों की दुनिया
शब्द जब हुंकारते हैं ज़ुल्म के ख़िलाफ
भगत सिंह हो जाते हैं शब्द
शब्द जब पहुँचते हैं किसी राजा के पास
छटपटाते हैं वे दिन-रात
रोते हैं अपनी नियति पर
वे जानते हैं
किया जाता रहा उनको इसी तरह इस्तेमाल
कोई नहीं करेगा उन पर विश्वास
वे कहलाएंगे धोखेबाज, चालबाज, पाखण्डी, घमण्डी
कुचले जाएंगे वे घोड़ों के नीचे
मारे जाएंगे, पीटे जाएंगे लाठियों के साथ
फिर से लेना होगा जन्म नये शब्दों को
नयी भाषा के साथ इस धरती पर।