शब्द / अशोक तिवारी
शब्द
इतना मत घिसो शब्दों को कि
खो ही बैठें अपना मतलब
इतना न चपटो कि
पहचान ही में न आएं
न बुनो इस क़दर
व्याख्या का शाब्दिक जाल कि
शब्दों का मूल अभिप्राय नज़र ही न आए
और शब्द देखे जाने लगें
शंका और शुबह की नज़र से
इतना न बनाओ गूढ़ शब्दों को
कि बग़लें झांकनी पड़ें अर्थ के लिए
और न ही इतना सरल
कि खो ही जाए उनका महत्व
शब्दों की बाज़ीगरी
खो न दे कहीं सही संदर्भ
शब्दों का बेजा इस्तेमाल
कर न दे अर्थ का अनर्थ
शब्दों को बने रहने दो सिर्फ़ शब्द ही
कि कहीं विद्रोह न कर बैठें वे
वाक्यों की जटिल संरचनाओं से
और झगड़ न बैठें
अक्षरों की
चमत्कारीय चकाचोंध के साथ
बने रहने दो शब्दों को
उन सभी मतलबों के साथ
जो जुड़े हैं आम आदमी की
आम ज़रूरतों के साथ
और जिनका रिश्ता अटूट है
ज़मीन और मिटटी के साथ सदियों से
जो कुदाल से निकली आवाज़ और
हल की मूंठ पकड़े किसान के टपकते पसीने
के खारेपन से बनते हैं
शब्द
सुख-दुःख की भाषा में
भीगी हुई संवेदना की आह है
शब्दों को सहेजकर रखो
इस क़दर कि
इतने ज़्यादा गोल न हो जाएं
कि उनकी मिठास से डायबिटीज़
होने का अंदेशा होने लगे
शब्द माँ, दादी, नानी, परनानी और
पीढ़ी दर पीढ़ियों के गले से
निकली हुई वो धरोहर हैं
जो अपने को निरंतर बदलते देख रहे हैं
मगर बदलते मूल अर्थों के मानी
समझने की कोशिश कर रहे हैं शब्द ख़ुद ही
और जूझ रहे हैं
चुप्पी के बोलते शब्दों के साथ लगातार !
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07 /08 /2011