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शब-ए-फ़िराक़ जो दिल में ख़याल-ए-यार रहा / शेर सिंह नाज़ 'देहलवी'

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शब-ए-फ़िराक़ जो दिल में ख़याल-ए-यार रहा
पस-ए-फ़ना भी तसव्वुर में इंतिज़ार रहा

उड़ा रहे हैं मिरी ख़ाक को वो ठोकर से
इलाही मुझ से तो अच्छा मिरा ग़ुबार रहा

नज़र मिलाते ही हाथों से दिल चला मेरा
किसी को देख के दिल पर न इख़्तियार रहा

किसी की नर्गिस-ए-मस्ताना फिर गई जब से
न वो सुरूर न आँखों में वो ख़ुमार रहा

शब-ए-फ़िराक़ की तन्हाई में था कौन अनीस
ख़याल-ए-यार ही इक अपना ग़म-गुसार रहा

वफ़ा नहीं तो नहीं मूरिद-ए-ज़फा ही सही
हज़ार शुक्र कि मैं दाख़िल-ए-शुमार रहा

ये डोरे डाले हैं किस चश्म-ए-मस्त ने ऐ ‘नाज़’
कि हश्र तक मिरी आँखों में इक ख़ुमार रहा