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शरद विजेता / मोहन साहिल

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कितनी तेज़? बर्फ़बारी है
सफेद हुई जा रही धरती की देह
चारों ओर भयंकर हवाएँ
नहीं टिक पाएगा एक भी पुराना पेड़

घरों को लौटते लोग बदहवास हैं
ओढ़नियों से सिरों को ढँके स्त्रियाँ
बंदर-टोपियाँ पहने पुरुष
महसूस कर रहे हैं घुटती साँस
दो कदम चलकर छटपटाते लोग
बर्फ़ के बवँडर
पाँव उखाड़ते रह-रहकर तूफान
सबको चिंता है अपने प्राणों की
कोई नहीं सोच रहा
बच्चों, बुज़ुर्गों और पशुओं की बाबत
न ध्यान है किसी को
काले बादलों में छिपे सूरज का

इस घमासान में भी
नंगे पाँव संतुष्ट चेहरा लिए
चल रहा है कोई शरद विजेता-सा
उसकी पिंडलियों की रक्त धमनियाँ
रौंदती चली जा रही हैं बर्फ़
जाने क्यों वह आकाश देखकर
मुस्कुरा देता है
और सफेद चादर ओढ़े
उत्सव मनाने लगती है धरती
बादलों के पीछे सूरज हँस पड़ता है
और बर्फ़् उसके आस-पास
पिघलने लगती है।