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शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 5 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'
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जहि तन निःसृत भेल हमर तन
तकर करब सुडाह।
हृदकम्पनसँ ऊठि रहल अछि
मुखसँ शतशः आह।।19।।
गति संसारक थीक उचित ई
बदला प्रेमक रीति।
कखन कोनाके पूरित होइछ
जन्मक साधन प्रीति।।20।।
कहइछ लोक विषय ई भाग्यक
सुतकर हो सम्पन्न।
भाग्यवान छथि पिता न संशय
भेल हमहुँ छी सन्न“।।21।।
एहि विधि शोकित मानस रहितहुँ
गति संसारक देखि।
उद्यत भेला सुत कर्त्तव्यहिं
छन संस्कार परेखि।।22।।
कएल समाप्त सकल विधि सम्यक
धारि सनातन धर्म।
“किन्तु ककर हित त्यागल” ई बढ़ि
धएल विरागी कर्म।।23।।